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प्रभावों से इन्कार ही स्वभाव का स्वीकार है

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  प्रभावों से इन्कार ही स्वभाव का स्वीकार है प्रश्नकर्ता:  सर, मेरा सवाल यह है कि क्या हमें अपनी ज़िन्दगी हमेशा दूसरों के बताए हुए रास्ते पर ही चलनी चाहिए या हमारी ख़ुशी जिसमें है वो काम करना चाहिए? जैसे कि मैं डिप्लोमा का कोर्स कर रहा हूँ। बहुत से लोग, यहाँ तक कि मेरे घर में – मेरे एक रिश्तेदार हैं, जो किसी बड़ी कंपनी में हैं – उन्होंने बोला था कि आपके पास यह डिग्री होनी चाहिए तो हम आपकी नौकरी इस कंपनी में लगवा देंगे। तो इस तरह आपका भविष्य सुरक्षित हो जाएगा, आपको सफ़लता मिल जाएगी। मेरा सवाल यह है कि क्या हमें उस सफ़लता के पीछे जाना चाहिए जो हमें दूसरों के बताए हुए रास्ते से मिलेगी या फ़िर हमें उस ख़ुशी के पीछे जाना चाहिए जो हमें… आचार्य प्रशांत:  क्या नाम है? प्र:  शैलेन्द्र। आचार्य:  शैलेन्द्र का सवाल है- दूसरों के बताए हुए रास्ते पर चलें या अपना हिसाब-किताब करें? शैलेन्द्र, इसका ज़वाब मैं तुम्हें तभी दूँगा जब तुम इस पंखे पर बैठ जाओ। (श्रोतागण हँसते हैं ) अगर ज़वाब पाना चाहते हो तो इस पंखे पर बैठो। बैठो! बैठ जाओ-बैठ जाओ। अरे! कुर्सी पर नहीं पंखे पर। (सभी ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं) प्र:  लेकिन कैसे

दुनिया मेरे विरुद्ध क्यों खड़ी है?

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  दुनिया मेरे विरुद्ध क्यों खड़ी है? प्रश्नकर्ता:  समाज से दूर होने को, समाज से असंप्रक्त होने को एक बड़ी बीमारी का नाम क्यों दे दिया गया है? अगर मैं अपने रास्ते चलना चाहता हूँ, अपने अनुसार जीना चाहता हूँ, तो दुनिया दुश्मन क्यों बनी बैठी है? उनको समस्या क्या है? मैं अपना जीवन जी रहा हूँ, अपने क़दमों पर चल रहा हूँ, अपनी राह बना रहा हूँ। दुनिया का क्या ले रहा हूँ? आचार्य प्रशांत:  सवाल बड़ा जायज़ है। मैं तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा रहा, मैं तुम्हारी चोरी नहीं कर रहा, मैं अपना जीवन जी रहा हूँ, मुझे जीने दो। मैं तुम्हारे घर में घुस कर नहीं बैठ रहा, मैं तुमसे छेड़खानी नहीं कर रहा, दखलंदाज़ी नहीं कर रहा, मुझे मेरे अनुसार जीने दो। पर ऐसा होता नहीं है। तुम पाते हो की जब भी कोई इतना चैतन्य हो जाता है कि उसका जीवन बस उसकी समझ के अनुसार चलता है, तो उसके तमाम दुश्मन खड़े हो जाते हैं। इस बात को समझना होगा कि दुश्मन क्यों खड़े हो जाते हैं। ये दुश्मन खड़े हो जाते हैं क्योंकि एक डरा हुआ आदमी भीड़ में ही सुरक्षा पाता है और अगर उस भीड़ की तादाद कम होते देखेगा तो उसका डर बढ़ जाएगा। जिस आदमी को अपना पता नहीं होता, वो च

जहाँ लालच वहाँ गुलामी

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  जहाँ लालच वहाँ गुलामी आचार्य प्रशांत:  बाहर जो कुछ भी है, वो तो एफ़र्ट माँगेगा ही माँगेगा। ‘एफ़र्टलेसनेस’ कहाँ होती है? एफ़र्टलेसनेस कहाँ होती है? प्रश्नकर्ता:  मन में। आचार्य:  वहाँ एफ़र्टलेसनेस रहे, वहाँ पर अनावश्यक कॉनफ्लिक्ट न रहे। मानसिक एफ़र्ट का मतलब होता है, बहुत सारी बातें, जो सोच रहे हैं; बहुत सारे विकल्प हैं, जो सामने आ रहे हैं; और आप उनमें उलझे हुए हैं। बाहर तो अगर आप एक शब्द भी बोलेंगे, तो उसमें एफ़र्ट लगेगा ही लगेगा। एक शब्द भी अगर बोला जाता है तो उसमे भी कुछ एनर्जी लगती है। बाहर की दुनिया में हमारे काम किस लिए होते हैं? जिसका मन अशांत है, वो बाहर बस पाना चाहता है। जिसका मन अशांत है, वो बाहर जो भी एफ़र्ट करता है, वो बस पाने के लिए होता है। शिव सूत्र में ‘उदयमो भैरव:’ का अर्थ है कि जब मन शांत है, मन एफ़र्टलेस है, तब बाहर पाने जैसी कोई ऑब्लिगेशन नहीं रह जाती है कि बाहर कुछ पाना ही पाना है। वो ऑब्लिगेशन ख़त्म हो जाती है कि बाहर कुछ पाना ही पाना है। और फ़िर बाहर जो कुछ होता है, वो अगर होता है तो इसलिए कि गन्दगी है, साफ़ कर दो, साफ़ कर दो, संचय नहीं कर लो, साफ़ कर दो। कुछ पाना नहीं है जी

जीवन गँवाने के डर से अक्सर हम जीते ही नहीं

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  जीवन गँवाने के डर से अक्सर हम जीते ही नहीं जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बपुरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।। ~ संत कबीर प्रश्नकर्ता:  इस दोहे को जब मैं अपने जीवन के सन्दर्भ में देखता हूँ तो पाती हूँ कि मेरे सारे प्रयत्न, जवाबों को ढूँढने की राह में कम ही पड़ते हैंI अपने प्रयासों को और बेहतर कैसे बनाऊं? आचार्य प्रशांत:  रूचि क्या कह रहे हैं कबीर? कह रहे हैं, ‘मैं बपुरा डूबन डरा, डूबने से डरा, रहा किनारे बैठ।’ और आप कह रही हैं कि “मैं अपने प्रयासिं को कैसे बेहतर करूँ?” डूबने के लिए कोई प्रयास करना पड़ता है? तैरने के लिए करना पड़ता है। आप पूछ रही हैं कि, “मैंने जब भी कोशिश की खोजने की, तो मुझे मिला नहीं।” तो आप पूछ रही हैं कि “मैं और कैसे कोशिश करूँ कि पा लूँ।” और कबीर क्या कह रहे हैं आपसे? कबीर कह रहे हैं डूब जाओ। कबीर कोई तुमसे कोशिश करने को कह रहे हैं? कबीर ने कोई ये आश्वासन दिया है कि कोशिश करोगे तो पाओगे? कबीर ने क्या कहा है? डूब जाओ। और जब तक कोशिश कर रहे हो, तब तक डूबोगे नहीं। डूबा तो ऐसे ही जाता है कि डूब गए। कोशिश करने वाले तो तैर जाते हैं ना फिर, या इधर से उधर से सहायता मं