निन्दा कहाँ से? अहं या स्त्रोत?

 


निन्दा कहाँ से? अहं या स्त्रोत?

निन्दक तोहे नाक बिन, सोहै नकटी माहि।

साधुजन गुरुभक्त जो, तिनमे सोहै नाही॥

निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

~ कबीर

आचार्य प्रशांत: निंदक तो है नाक बिन। नाक से अर्थ है—मान, कीमत। उसकी अपनी कोई कीमत नहीं होती है। उसकी अपनी कोई कीमत नहीं हो सकती है, जिसमें निंदा का भाव हो। क्योंकि निंदा करने का अर्थ ही यही है कि पूरी बात देखी नहीं। जहाँ आधी-अधूरी तस्वीर दिखाई देगी, वहीँ पर लगेगा कि कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था। कोई ऐसा है जैसा उसे नहीं होना चाहिए।

ऐसा सिर्फ तब लग सकता है जब एक बहुत संकीर्ण दृष्टि हो, जब बात पूरी दिखाई ही न दे रही हो। दुनिया में जो कुछ भी जैसा है उसकी अपनी एक यात्रा है। उस यात्रा के बिना वो वैसा हो नहीं सकता था। चक्र पूरा करके ही वो वहाँ तक पहुँचा है और जहाँ अभी पहुँचा है, वहाँ वो सदा रहेगा नहीं। वहाँ से वो आगे बढ़ता ही रहेगा। जिधर को भी आगे बढ़ेगा, जहाँ पर भी अब उसके कदम पड़ेंगे, पग-पग पर अपूर्णता ही है।

वो अपूर्णता किसी एक खास दृष्टि से देखने पर आपको अच्छी भी लग सकती है। दूसरी दृष्टि से देखने पर वही अपूर्णता निंदा योग्य लगेगी। अंतर सिर्फ दृष्टि का है। था वो पहले भी यात्रा पर, है वो अभी भी यात्रा पर। यात्रा अभी पूरी हुई नहीं है। वो दृष्टि है जो निंदा करती है क्योंकि दृष्टि भी स्वयं अपूर्ण है। दृष्टि उससे जो चाहती थी, वो उसको वहाँ दिखाई दे नहीं रहा है। इस कारण निंदा की ज़रूरत पड़ती है। “निंदक तो है नाक बिन”।

जब तक पूरी बात दिखाई नहीं देगी, निंदा तब तक रहेगी ही रहेगी। ये वैसा ही होगा जैसे कोई पाप की निंदा करे और पुण्य की प्रशंसा। इस आदमी को पूरी बात अभी दिखाई ही नहीं दे रही है। ये समझ ही नहीं पा रहा है कि पाप के बिना पुण्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। तो ये पाप की निंदा करे जाएगा। ये वैसा ही होगा जैसे कोई सफ़ेद की निंदा करे या काले की निंदा करे और उसके विपरीत की प्रशंसा करे। निंदा, प्रशंसा एक साथ चलते हैं। जो प्रशंसा करने में उत्सुक है, निश्चित रूप से वो कहीं न कहीं निंदा भी कर रहा है। बिना निंदा के प्रशंसा नहीं आएगी।

फिर सवाल ये उठता है कि दूसरे ही दोहे में कबीर ये क्यों कह रहे हैं कि “निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय”। इनमें विरोधाभास क्यों दिखाई दे रहा है? एक तरफ तो कह रहे हैं कि “निंदक तो है नाक बिन”, एक तरफ तो कह रहे हैं कि “साधुजन गुरुभक्त जो, तिनमें सोहै नांहि”। जो साधुजन हैं या जिन्होंने गुरु भक्ति को पा लिया है, अब उनके जीवन में निंदा शेष नहीं रह जाएगी। दूसरी ओर वो ये क्यों कह रहे हैं कि “निंदक नियरे राखिये”?

मैं अपूर्ण हूँ और अपूर्ण के रूप में ही अपने आप को मान्यता देता हूँ, ये बताने वाला भी कोई होना चाहिए। घटना क्या घटती है इसको ठीक से देखेंगे। निंदक अपनी ओर से आपकी कीमत छोटी करके बता रहा है। नहीं, निंदक हितैषी नहीं है आपका। वो अपनी ओर से तो आपको ये ही बताना चाह रहा है कि तुम छोटे हो, तुममें कुछ ऐसा है जो स्वीकार्य नहीं है, तुममें कुछ ऐसा है जो बिलकुल ही गर्हित है। निंदक तो यही बता रहा है। लेकिन निंदक के माध्यम से आप ये समझ जाते हैं कि मैं अभी किसी न किसी गुण में ही जी रहा हूँ। क्योंकि निंदा किसी न किसी गुण की ही की जाती है। गुण का क्या अर्थ है? कि कुछ न कुछ अभी मेरी पहचान बाकी है। निंदा सिर्फ उसी की हो सकती थी।

बात ये नहीं है कि निंदा ठीक है इस कारण कबीर कह रहे हैं कि “निंदक नियरे राखिये”। बात ये नहीं है कि निंदा में जो कहा जा रहा है वो तथ्य परख है। बात सिर्फ इतनी सी है कि कुछ तो है ना जिसकी निंदा की जा रही है। नहीं, क्या है? ये निंदा करने वाले ने बिलकुल नहीं समझा है कि क्या है? पर कुछ तो दिखाई दिया ना। आसमान की निंदा नहीं हो सकती। खाली आकाश की निंदा नहीं हो सकती। कुछ गुण दिखा, कोई तत्व दिखा जिसकी निंदा हो रही है। और जब तक कुछ भी है आप में—दाँया या बाँया, ऊँचा या नीचा, गोरा या काला, आपमें कुछ भी शेष है तो अभी पूर्णता उपलब्ध नहीं हुई है। ये बिलकुल नहीं कहा जा रहा है कि जब तक कुछ भी शेष है, तो आप निंदनीय हैं। निंदनीय नहीं हैं, पर अभी आप ‘हैं’। अंतर समझियेगा, आप निंदनीय नहीं हैं पर अभी ‘हैं’। होने से क्या अर्थ है?

प्रश्नकर्ता: पहचान (आइडेन्टिटी)

आचार्य: आप बाकी हैं, पहचान बाकी है, अहम् बाकी है। मात्र उसी की निंदा हो सकती है। तुम निर्गुण की निंदा कैसे करोगे? क्या बोल के निंदा करोगे उसकी? तुम उसको जो भी बोलोगे, वो है ही नहीं वो। तो उसकी निंदा हो ही नहीं सकती। तुम किसी विशेष की ही निंदा कर सकते हो ना? तुम निर्विशेष की निंदा कर ही नहीं सकते।

दूसरे तरीके से देखो, तुम निंदा उसी की कर सकते हो जो नदी के उस पार हो या नदी के इस पार हो। तुम कहोगे जो उस पार वाले हैं वो ख़राब, जो इस पार वाले हैं वो अच्छे। तुम उसकी निंदा कैसे करोगे जो अभी इस पार है और कभी उस पार है। वो न इधर का है, न उधर का है, वो दोनों तरफ़ का है और किधर का भी नहीं है। बात समझ में आ रही है?

प्र: इसमें जिसकी निंदा हो रही है उसके बारे में ज्यादा पता लग रहा है या जो निंदा कर रहा है उसके बारे में क्योंकि अगर मैंने अब जिसकी निंदा हो रही है उसकी भौतिक अवस्था (फिजिकल स्टेट ), होगी, वो भौतिक अवस्था निंदा करने वाले ने पहली बार देखी है।

उदाहरण के लिए, आपने पीला कुर्ता पहन रखा है, मुझे काला पसंद है। तो मैं इस चीज़ की निंदा करूँगा। मगर मैं नहीं जानता कि और कितने पहने होंगे, और क्या–क्या कपड़े पहने होंगे? ये सब मैं कुछ भी नहीं जानता। तो जब मैं निंदा कर रहा हूँ तो वो मेरी सीमा (लिमिटेशन) बता रही है। क्योंकि आपकी…..।

आचार्य: जो पहला दोहा है, वो निंदक के लिए है कि जिसमें निंदा का भाव उठे, वो पगला है। निंदा का भाव उठे, वो पगला है, इससे अर्थ ये नहीं कि सब कुछ प्रशंसनीय है। गलत मत समझ लीजियेगा, किसी की निंदा नहीं करनी है इसका ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि हमेशा तारीफें करती रहनी हैं क्योंकि निंदा और प्रशंसा एक ही बात है। दूसरे सिरे पर मत कूद जाइएगा कि नहीं-नहीं किसी की बुराई मत करो, सिर्फ तारीफें करो। होते हैं ऐसे लोग, जिनको कुछ भी मिले वो उसकी तारीफ़ ही करना शुरू कर देते हैं। वो भी पगले हैं।

जो पहला दोहा है, वो निंदक के लिए है, जो निंदा करने में बड़ा आतुर रहता हो। जो दूसरा दोहा है, वो उसके लिए है, जिसको सद्बुद्धि है, जो मुक्ति की राह पर है। उसको कहा जा रहा है कि अगर कोई आ कर के तुम्हारा कोई भी गुण इंगित करता है, तुम्हारे लिए बहुत अच्छा है, उसको पास बैठाओ। उसने कुछ तो देखा तुम में। अभी तुम शेष हो, वो इशारा कर रहा है।

दोनों दोहे अलग-अलग लोगों से कहे गए हैं। पहला उससे कहा गया है, जो निंदा करने में बड़ा उत्सुक है। दूसरा उससे कहा गया है, जिसे निंदा सुननी पड़ रही है। तुम्हारी निंदा हो रही है, “निंदक को नियरे राखो”, यहाँ पर भी धोखा मत खा जाइयेगा। कबीर ये नहीं कह रहे हैं कि तुम्हारी जो भी निंदा की जा रही है, वो ठीक है। ये बिलकुल भी नहीं कह रहे हैं। कबीर कह रहे हैं, “कुछ भी अगर किसी ने कहा तो कोई तो है ना जिसके बारे में कहा।” नहीं, जो कहा उसमें कोई दम नहीं है।

मैं जा कर के यहाँ पर एक पेंटिंग बनाऊँ और मैं बहुत घटिया पेंटिंग बना दूँ इस दीवाल पर। और तुम जा कर के इसी दीवार पर एक बहुत खूबसूरत पेंटिंग बना दो। ये जा कर के कुछ और बना दें, वो जा कर के कुछ और बना दें, ये कुछ और बना दें। सत्रह तरह के चित्र हो सकते हैं, हमारी सत्रह तरह की मनोस्थितियों पर निर्भर करते हुए, ठीक है ना? हो सकते हैं कि नहीं हो सकते हैं? जितने लोग उतने चित्र बनेंगे, पर उन सभी चित्रों में एक बात है जो निरंतर मौजूद है। क्या?

प्र: दीवार।

आचार्य: दीवार। दीवार थी तभी चित्र बन पाये, न होती दीवार तो चित्र कहाँ से बनते? कबीर यही कह रहे हैं कि दीवार है। तुम लेट जाओ जा कर के खुले आसमान के नीचे और ऊपर बादल हैं और दस लोग लेट जाओ और पूछो कि ऊपर क्या है? किसी को हाथी दिखाई देगा, किसी को महल, किसी को घोड़ा, किसी को कोई शक्ल दिखाई देगी, किसी को कोई और आकृति दिखाई देगी। नहीं, कबीर ये नहीं कह रहे हैं कि उनमें से एक आकृति दूसरे की अपेक्षा ज्यादा सच्ची है। कबीर बस इतना ही कह रहे हैं कि यदि अभी आकृतियाँ दिखाई दे रही हैं तो इसका मतलब कि बादल है। आसमान अभी घिरा हुआ है। बस यही कह रहे हैं वो।

जब कहते हैं “निंदक नियरे राखिये” तो आशय इतना ही है कि बादल अभी है। बादल न होते तो ये कुछ भी न कह पाता। या बादल न होते तो जो कहता, उसका विपरीत भी उसे कहना पड़ता। तो, इस कारण वो कह रहे हैं, कि निंदक साबुन बिना पानी बिना निर्मल कर जाता है। निंदक में और कोई पात्रता नहीं है, बिलकुल कोई पात्रता नहीं है। समझ में आ रही है बात?

प्र: अगर कोई मुझे दुःख पहुंचा पा रहा है तो ये देखना है कि कुछ तो है जो अभी दुखी हो रहा है।

आचार्य: सही। अब यही समझो ना बिलकुल अच्छा उदाहरण है। एक पगला है, वो बिलकुल बे सिर पैर की बातें कर रहा है। और वो आपके सामने से गुज़र जाता है। बिलकुल बे सिर पैर की बातें। वो आपको जानता नहीं और वो गालियाँ सुना जाता है आपको, और आहत हो जाते हैं आप। इस आहत होने से क्या ये सिद्ध होता है कि पागल जो कुछ कह रहा था, वो ठीक था?

प्र: पागल की कोई कीमत नहीं। एक पागल है, वो आपको गालियाँ सुना जाता है और ये बात हम सब पर लागू होती है। पागल भी आ कर के अगर हमें गालियाँ दे जाए, तो कहीं न कहीं हमें बुरा ज़रूर लग जाएगा। क्या इसका ये अर्थ है कि पागल जो कुछ कह रहा था, उसमें कोई दम था, कुछ तथ्य था उसमें? पागल आपसे बोल गया कि तेरे सिर पे तो पूँछ लगी हुई है। क्या इस बात में कोई दम है? पर आप आहत हो जाएँगे। इसमें कोई शक नहीं है। कबीर ये ही कह रहे हैं, तुम्हारा आहत होना दिखाता है कि अभी निर्मल नहीं हुए हो। इस कारण निंदक को नियरे रखो। वो जो बोलेगा, वो बात नहीं है। असली बात वो है कि तुम्हें लगा क्या? अभी अगर तुम्हें उसके बोलने में निंदा लग ही रही है, तो भला है कि वो बोलता जाए। तुम सचेत रहोगे इस बात के प्रति कि अभी भी मुझे बुरा लगता है। और तुम्हारा ये सचेत रहना तुम्हारे बड़े काम आएगा, यही बोध है।

समझ में आ रही है बात?

जो दूसरा दोहा है, ये समर्पित है उनको जिन्हें निर्मल होना है। पहला दोहा उनको, जिनकी निंदा में बड़ी उत्सुकता है। तो उनसे साफ़-साफ़ कह रहे हैं कबीर कि कुछ है जो तुम्हारे मन मुताबिक नहीं है, इसी कारण तुम निंदा कर सकते हो। नहीं प्रशंसा मत करो उसकी, पर साफ़-साफ़ समझो कि जो कुछ है उसमें तत्व तो एक ही है। तो इसी लिए जो निंदनीय है वो भी मूलतः वही है जो तुम्हें प्रशंसनीय लगता है।

ठीक है चलो, संसार चलाना है, व्यवहार चलाना है, कर लो निंदा। कर लो किसी की स्तुति भी, पर ये मत भूलना निंदा या प्रशंसा के गहरे क्षण में भी कि तत्व तो इसका वही है, ‘एक’। उस एक के अलावा कुछ होता नहीं। राबिया की वो कहानी सुनी है ना हम सब ने?

हसन फ़कीर थे। ये शुरुआत के सूफ़ी हैं। तो राबिया से मिलने आये, रुके, फिर सुबह-सुबह राबिया से कहते हैं कि क़ुरान पाक कहाँ है? सुबह की नमाज़ का वक्त था। राबिया ने दी, पढ़ने लगे। देखते हैं, उसमें राबिया ने कुछ बदलाव कर रखे हैं, काट रखा है। क्या काट रखा है? कि लिखा हुआ है शैतान से नफ़रत करो, वो भी काट दिया है। अब ये बड़ी गलत बात। आप एक धार्मिक पुस्तक में संशोधन कैसे कर सकते हैं? आप उससे भी बड़े हो गए? हसन ने कहा, ‘ये क्या किया तूने?’। वो बोली, “अब शैतान में भी वही दिखाई देता है, तो नफ़रत कैसे करूँ?

निंदा, नफ़रत, आप तभी तक कर पाओगे, जब तक भेद दिखाई देते हों, जब तक द्वैत दिखाई देते हों। यही कबीर सन्देश दे रहे हैं। ऐसा नहीं है कि शैतान, शैतान नहीं है। प्रकट तो वो शैतान के ही रूप में हो रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं। लेकिन मूलतः शैतान भी भगवान है। कोई शैतान ऐसा नहीं है जो भगवान होने की यात्रा पर नहीं है। चक्र चल रहा है बस। आज कुछ है, कल कुछ और होगा। अंततः उसे मिट जाना है, वही हो जाना है, जो वो था।

प्र: ये जो दूसरा वाला हिस्सा था, राबिया की कहानी से पहले, वो थोड़ा सा गड़बड़ हो जाता है जब आप कह रहे हैं ना कि संसार है, उसमें प्रशंसा और निंदा चलती ही रहेगी, ये तो होगी ही। अब यहाँ पर लाइसेंस मिल जाता है। ये एक नियम की तरह है। न ही प्रसंशा, न ही निंदा कुछ दिनों के लिए। आम नुस्खा। तो वो फिर भी करने योग्य है। जिस क्षण मैं मुक्त होता हूँ, अब मेरी हर निंदा और हर प्रशंसा…..।

आचार्य: जैसे ही ये होता है कि न प्रशंसा करनी है, न निंदा करनी है, तुमको जड़ होने की सुविधा मिल जाती है। बड़ा आसान हो जाता है, जड़ हो जाओ। एक नियम मिल गया है ना और नियम तो जड़ता को, बेहोशी को आगे बढ़ाता है। मुझे कुछ करना ही नहीं है। समझ की आवश्यकता कहाँ है? जीवन जीने का मज़ा तब है, जब ऊपर-ऊपर जो भी चलता रहे, नीचे होश कायम रहे, तभी तो बात है ना?

प्र: नहीं, मैं जो कह रहा हूँ वो ये कि जैसे आपने कहा कि निंदा और प्रशंसा चलती है मगर ऊपर-ऊपर, वही है कि निंदा करना, निंदक मत बन जाना। वो अन्दर न रहे। मगर फिर ये होगा कि मैं निंदक बन रहा हूँ, मैं निंदा भी कर रहा हूँ मगर मैं अपने आप को फिर ये भी बता रहा हूँ, कि जो चालाकी इसमें देख रहे हैं, मैं अपने आप को फिर ये भी बता रहा हूँ कि मैं निंदक नहीं हूँ, मैं सिर्फ निंदा कर रहा हूँ, मैं इससे अलग हूँ।

आचार्य: ये मैं कब बता रहा हूँ, निंदा करने के बाद या ठीक उसी क्षण मुझे याद है।

प्र: बाद में ।

आचार्य: तो फिर उसकी कोई कीमत नहीं है, उनको छोड़ो। अगर ये नियम ही बना लिया जाए तो बहुत आसानी हो जानी है पर आसानी से हमें कुछ मिलना नहीं है। ये नियम बन जाये कि भई चलिये ये एक छोटा सा समुदाय है और यहाँ कोई किसी की निंदा नहीं करेगा, कोई किसी की प्रशंसा भी नहीं करेगा। बड़ी अच्छी बात है। कोई कर भी रहा होगी किसी की बुराई तो दूसरा टोक देगा कि न-न-न, हमारे यहाँ तो नियम है।

अब आपके लिए बड़ा आसान हो गया, अब ये आपकी आदत बन गई। और, आदत बेहोशी है, नियम बेहोशी है। उसमें कुछ नहीं करना है। जिस राबिया की हम बात कर रहे हैं, इसी राबिया ने, कहा जाता है एक दूसरे मौके पर हसन को बड़ी डांट लगाई थी। वो निंदा जैसी ही दिखेगी। अब सवाल ये उठता है कि वो राबिया जो शैतान से नफ़रत करने को नहीं तैयार है, वो एक संत को डांट कैसे लगा रही है? हसन को कैसे डांट लगा रही है?

अब विरोधाभास देखिये ना, कहती है “शैतान से नफ़रत नहीं कर सकती,” और हसन को डांट लगा रही है। ये कैसे हो गया? क्योंकि जो खेल खेलने के लिए हम प्रकटे हैं, वो खेल तो खेलना ही है। खेल खेलते भी रहें और याद भी रहे कि खेल मात्र है, तब खेलने का मज़ा है। डूब के खेलें, तब भी याद रहे कि सिर्फ खेल ही तो रहे हैं। न तो ये हो जाए कि अरे सिर्फ खेल है तो क्यों खेलें? छोड़ ही दो, त्याग दो, न। क्योंकि खेलने के अलावा तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। तुम जब ये कहते भी हो कि मात्र खेल भर रहा हूँ, इसमें कुछ रखा नहीं है, वो भी खेल का हिस्सा है। तुम सब कुछ त्याग दो तो भी तुम खेल के भीतर ही रहोगे।

क्रिकेट का मैदान देखा है ना? कोई बहुत जोर से दौड़ रहा है और एक विकेट कीपर होता है वो लगातार एक जगह खड़ा होता है। दोनों खेल के भीतर ही हैं। तुम दौड़ रहे हो उस खेल में, तुम्हारा एक रोल रहेगा। तुमने दौड़ना छोड़ दिया है, उस खेल में तुम्हारा..।

प्र: दूसरा रोल।

आचार्य: पर हो अभी भी तुम खेल के भीतर ही। तो ये नहीं करना है कि खेलना छोड़ दिया और ये भी नहीं करना है कि भूल गए कि ये खेल है, उसी को हकीकत मान लिया।

प्र: जो इसमें कबीर कह रहे हैं, वो निंदा क्या इसका मतलब अक्षरशः मतलब जो कार्य है शायद उसकी नहीं होगी। जैसे हम किसी को डांट रहे हैं, राबिया ने डांटा हसन को, तो हमें वो निंदा लगती है क्योंकि हम पहले से उस कार्य को, उस अक्षरशः को, उस शारीरिक हाव-भाव को निंदा कह रहे हैं।

आचार्य: बढ़िया है। अब दो बातें हैं यहाँ पर। फिर निंदा के दो प्रकार निकलते हैं, इनको हम बिलकुल ठीक-ठीक समझेंगे।

एक निंदा होती है, जिसमें हम सामने वाले के पूरे अस्तित्व को निंदनीय बना देते हैं। जहाँ हम कहते हैं कि तू ओछा है, छोटा है, निकृष्ठ है। इस निंदा में हम भूल ही गए हैं कि वो जो तू है वो है क्या? और एक दूसरी निंदा भी होती है, जो राबिया, हसन की करती है। ये निंदा कहती है, “तू पूरा है, तू वही है जो मैं हूँ, तू भूल गया है।”

पहली निंदा गिराती है। पहली निंदा एक पहचान बनाती है कि मैं छोटा, कुपात्र, असमर्थ हूँ। दूसरी निंदा उठाती है। दूसरी निंदा आपको अहसास कराती है कि आप वो हैं नहीं, जो आपको होना था। पहली निंदा ये बिलकुल नहीं कहती कि तुम वो नहीं हो, जो तुम्हें होना था। पहली निंदा कहती है, तुम वही हो जो तुम्हें होना था, तुम्हें कीचड़ ही होना था। तुम कीचड़ ही हो। और इन दोनों स्थितियों में अंतर करना बिलकुल समझियेगा।

जब निंदा सुनने को मिले तो ज़रा ध्यान से देखियेगा कि निंदक कह क्या रहा है? निंदक यदि आपसे ये कह रहा है कि तुम तो हो ही नालायक, ओछे, गंदे, तो बचिये उससे। या, यदि वो आपके करीब भी है, तो उसको बस एक उपाय की तरह देखिये। जैसा हमने कहा थोड़ी देर पहले कि कुछ तो होगा मुझमें जिसको देख के ये कुछ तो बोल रहा है। बिलकुल ही कुछ न होता तो कुछ न बोल पाता।

और जो दूसरी निंदा हो, उसको साफ़-साफ़ समझिये। वो एक प्रकार की पुकार होती है। वो कहती है, “कोई खोट कहाँ तुममें, इसके अलावा कि बेहोश हो। कुछ गड़बड़ कहाँ तुममें, इसके अलावा कि जो हो, उसके अतिरिक्त कुछ और माने बैठे हो।” इन दोनों का भेद ठीक-ठीक समझियेगा क्योंकि रोज़-मर्रा के जीवन में स्थितियाँ आएँगी, जब निंदा सुननी भी पड़ेगी और निंदा करनी भी पड़ेगी।

यही बात तारीफ़ पर भी लागू होती है। आप ध्यान देंगे तो समझ जाएँगे कि वहाँ पर कैसे लागू होती है। पर हम निंदा की ही बात कर लें पहले। ठीक है, कोई कुछ ऐसा कर रहा है जो बिलकुल पतित सा है, कोई कुछ ऐसा कर रहा है जो उसके लिए और बहुत और लोगों के लिए दुःख का कारण बनेगा। अब धर्म है आपका कि इस स्थिति में आप कुछ करें, आपको करना पड़ेगा। यही करुणा है, यही प्रेम है। कोई भ्रम में जी रहा है, फ़र्ज़ है आपका कि आप कुछ करें, उसके भ्रमों को तोड़ें। पर देखें कि उसके भ्रमों को तोड़ने में आपकी मानसिकता क्या हो रही है? आप उसको क्या कह कर के जगा रहे हो?

ठीक है, आप मारो उसे डंडा, पर डंडा मारते वक़्त आप क्या कह रहे हो उससे? कि तू नालायक है, या ये कि तू तो बहुत ही लायक है और मुझे अफ़सोस ये कि लायक होते हुए भी नालायकी कैसे कर गया? तेरी नालायकी इसी में है कि तू लायक होते हुए भी नालायकी । ये दोनों बहुत अलग-अलग दृष्टियाँ हैं, बहुत अलग-अलग दृष्टियाँ हैं। डंडा दोनों में पड़ रहा है, पर डंडा मरने वाले कि दृष्टि बहुत अलग-अलग है।

एक दृष्टि प्रेम की है, दूसरी दृष्टि घृणा की है। एक दृष्टि उठा देगी और दूसरी उसे बिलकुल गिरा देगी। चोट डंडे की बराबर ही लगेगी। सच तो ये है कि जिन कबीर ने ये बात कही है, वो निंदा करने में बिलकुल सिरमौर थे। कबीर ने जितने डंडे बरसाये हैं, उतने किसी संत ने ना बरसाये होंगे। तेल पिला-पिला के डंडे मारे हैं और बड़ी गहरी चोट है कबीर की। जब पड़ती है तो तिलमिला जाए आदमी।

लेकिन, जिसको कबीर का डंडा पड़ गया, उसका सौभाग्य है। ऐसा है कबीर का डंडा कि लगे तो कायाकल्प कर दे, क्योंकि घृणा में नहीं मार रहे हैं कबीर। अफ़सोस है कबीर को, इसीलिए मार रहे हैं डंडा। करुणा है कबीर के मन में, दुखी भी हो जाते हैं हमारी स्थिति देख के। “सुखिया सब संसार है, खावे और सोये। दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।।” आप सोये पड़े होते हैं, कबीर आपके बीच बैठे के जगे हुए हैं और रो रहे हैं। उस दुःख से, उस करुणा से, वहाँ से करते हैं निंदा। निंदा करिये तो वैसी करिये। फिर उस निंदा में बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। फिर आप निंदा करके पीछे नहीं हट सकते।

कबीर गोरिल्ला लड़ाई नहीं लड़ते थे कि दो दोहे मारे, किसी को परेशान किया और फिर कहीं जा के दुबक गए। फिर वहाँ पूरी ज़िम्मेदारी है। अगर कह रहा हूँ कि तूने गलत किया, कि तू बेहोश है, कि तू पगला है, अगर कह रहा हूँ ये, तो फिर मैं ज़िम्मेदारी लेने को भी तैयार हूँ कि तू साथ चलेगा, तो मैं साथ नहीं छोड़ूँगा। इतना ही नहीं, तू जब चलने को नहीं भी तैयार होगा तो मैं तुझे घसीट कर ले चलूँगा, यथाशक्ति, जहाँ शक्ति ही नहीं बची फिर तो क्या कर सकता हूँ? पर देने वाला जब तक ताकत दिए जाएगा, मैं पीछे नहीं हटूँगा।

निंदा करना बड़ी ज़िम्मेदारी है, क्योंकि निंदा, वास्तविक निंदा, प्रेम है। निंदा, प्रेम जितनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी है। बिलकुल पीछे मत हटिये, जस का तस कहिये, दूध का दूध—पानी का पानी कहिये, बेशक कहिये लेकिन चोट पहुँचा कर भाग मत जाईये। फिर खड़े रहिये कि हाँ, गंदगी साफ़ की मैंने और उस गंदगी साफ़ करने की प्रक्रिया में तुझे चोट लगी है, मलहम भी मैं ही लगाऊँगा। कुछ बोल दिया ऐसा मैंने तुझे, जिससे तेरी नींदें उड़ गई हैं, मैं साथ जगूँगा। ये प्रेम है। ये निंदा अब निंदा नहीं है, अब ये एक उपाय बन गयी है। ये जागृति का उपाय बन गई है। समझ रहे हैं? अब नहीं आ कर के कबीर आप से कहेंगे कि निंदक तो है नाक बिन, अब नहीं कबीर कह रहे आपसे।

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