दमित जीवन ही उत्तेजना मांगता है

 


दमित जीवन ही उत्तेजना मांगता है

प्रश्नकर्ता: सर, कल मेरी एक दुर्घटना हुई| उसके बाद एक सुरूर-सा छा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है?

आचार्य प्रशांत: हम इतनी छोटी, तेजहीन और ओछी ज़िंदगी जीते हैं कि उसमें किसी भी प्रकार की असुरक्षा के लिए, ख़तरे के लिए, यहाँ तक कि विविधता तक के लिए जगह नहीं होती है।

एक राजा की कहानी है। उसने पूरी सुरक्षा के लिए एक महल बनवाया। महल बहुत मज़बूत, अभेद्य दुर्ग। उससे किसी ने पूछा, “दीवारें तो बहुत मज़बूत हैं, पर क्या दरवाज़े मज़बूत हैं?” उसे किसी ने सलाह दी कि दरवाज़े भी उतने ही मज़बूत होने चाहिए। तो उसने दीवारों से दरवाज़े भी ढक दिये, और सिर्फ एक दरवाज़ा छोड़ा। उसे फिर किसी ने सलाह दी कि ख़तरे के आने के लिए तो एक दरवाज़ा भी काफ़ी है, तो यह भी बंद कर दो। और अंततः उसने अपने किले को ही अपना ताबूत बना लिया। वो किला उसका मकबरा बन गया।

हमारा जीवन करीब-करीब ऐसा ही है। फर्क नहीं पड़ता कि हमने जीवन के कितने साल बिता लिए हैं, लेकिन डर के मारे हम किसी भी प्रकार के खतरे के करीब भी नहीं गए होते हैं। जो खतरे, जो चुनौतियाँ जीवन अपनी सामान्य गति में भी प्रस्तुत करता रहा है, हम उनसे भी डर-डर कर भागे होते हैं। हमने अपनेआप को लुका-छिपा कर रखा होता है। नतीजा यह होता है कि एक तो हम खौफ में और धंसते चले जाते हैं, और दूसरा यह कि एडवेंचर, रोमांच किसी तरह हासिल करने की हमारी इच्छा बढ़ती जाती है।

जो बंद दरवाज़ों में जी रहा है, उसे बड़ी इच्छा उठेगी कि किसी तरह जीवन में थोड़ी तो गरमी आये, कुछ तो ऐसा हो जिससे धड़कन बढ़े। कुछ तो ऐसा हो जिससे ज़रा खून दौड़े। तुम्हारे जीवन में शायद ऐसा कुछ है ही नहीं। शायद हर प्रकार के ख़तरे तो तुमने अपने से बिल्कुल दूर रखा हुआ है। उससे फिर विकृति पैदा होती है।

दो गाड़ियों की दुर्घटना हुई, गाड़ियाँ पलट गईं। इसमें तुमने ईमानदारी से लिखा है कि तुम्हें ज़रा सुरूर-सा आया। वो सुरूर इसलिए आया क्योंकि तुम्हें अनजाने में ही सही, संयोगवश ही सही, एक प्रकार का रोमांचक खेल मिल गया। जो तुम्हें ज़िन्दगी भर हासिल नहीं हुआ था, वो तुमको ऐसे हासिल हो गया।

तुमने देखा होगा लोगों को, लोग ज़बरदस्ती गाड़ी दौड़ाते हैं। पहाड़ पर जाकर रस्सी-वस्सी ले कर कूद जाते हैं, और यह सब कुछ एक व्यवस्थित खेल के नाम पर चलता है। यह सब कुछ नहीं है, यह विकृतियाँ हैं क्योंकि आपने आम-रोज़मर्रा के जीवन को बिल्कुल कवच से ढक रखा है। उसमें खतरा लेशमात्र भी आपने छोड़ा ही नहीं है। किसी भी प्रकार के विकल्प के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है। जो है, सब तयशुदा है। और जो तयशुदा है, वह सिर्फ उबाता है, उसमें सिर्फ बोरियत होती है।

आपको अच्छे से पता है कि आप सुबह उठ कर कहाँ जाओगे, आपको अच्छे से पता है वहाँ क्या होगा। आपको यह भी पता है कि आप वापस लौट कर कहाँ आओगे। आपको यह भी पता है कि वहाँ आपको कौन-से चेहरे मिलेंगे, आपको यह भी पता है कि वो आपसे किस तरह की बातें करेंगे, आपको यह भी पता है कि उसके बाद क्या होगा, और अगला दिन भी वैसा ही होगा। सब कुछ तो तयशुदा है।

जब सब कुछ इतना तयशुदा हो जाता है, तो मन का एक कोना विद्रोह करता है। वो कहता है, “भले ही मौत का ख़तरा हो, लेकिन कुछ तो अलग हो”। तुम्हें कुछ अलग मिला, इसीलिए तुम्हें वो अच्छा लगा। भले ही वो मौत के ख़तरे के साथ मिला, मौत से बहुत दूर नहीं थे तुम। मौत का ख़तरा मिला पर, पल दो पल जी तो लिए। कुछ तो ऐसा हुआ जो अलग था! ज़रा-सा ढांचा तो टूटा।

यह तो सौ बार हुआ है कि मुरादाबाद से चले हैं, और दिल्ली उतर गए हैं। आज ज़रा कुछ अलग तो हुआ। ज़रा मुर्दे में जान तो आई! नहीं तो क्या था। गाड़ी में पीछे सो रहे थे आलसी की तरह, फिर आते, उतर जाते, जा कर पड़ जाते बिस्तर पर। यह तो पहली बार हुआ कि गाड़ी के चारों टायर ऊपर हैं, और खिड़की, दरवाज़े तोड़ कर बाहर आ रहे हैं और अस्पताल-थाना चल रहा है। मज़ा तो आया ही होगा। पर यह जो मज़ा है, यह सिर्फ तुम्हारे जीवन की नीरसता का द्योतक है। जीवन ऐसा ऊब से भरा हुआ है कि तुम किसी भी कीमत पर ज़रा चहल-पहल चाहते हो।

यह सन्देश है- या तो स्वयं ही ज़रा जीवन को खोल दो असुरक्षा के प्रति, चुनौतियों के प्रति, नहीं तो इतने बीमार हो जाओगे कि रोमांच के लिए किसी दिन किसी दस-मंजिली इमारत से कूदने तो तैयार हो जाओगे, कि कुछ तो नया होगा। जिनके जीवन में कुछ नया नहीं होता, उनके साथ फिर यही होता है।

जिनका जीवन यूँही चुनौतियों से, और खतरों से हर पल खेल रहा होता है, उन्हें फिर रोमांच की ज़रूरत नहीं पड़ती। वो बहती नदी को देख कर पागल नहीं हो जाते कि हमें इसमें कूद जाना है। तुम जाते हो और नदी को देख कर बिल्कुल पागल हो जाते हो कि कूदना है, तो इससे यही पता चलता है कि तुम्हारा रोज़मर्रा का जीवन बड़ा थका हुआ है।

तुम्हारा कोई भरोसा नहीं। तुम्हारी ऊब बरक़रार रही तो तुम ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दोगे कि और दुर्घटनाएँ हों। “बड़ा अच्छा लगता है- लोहे का लोहे से घिसना, वो चिंगारियों का उठाना, वो गाड़ी का गोल घूम जाना, वो सड़क पर फैला हुआ शीशा, वो चीख-पुकार, कि कुछ हुआ तो। हम किसी बड़ी घटना का हिस्सा तो बने। अन्यथा हमारे जीवन में कुछ बड़ा घट ही नहीं रहा है। क्या बड़ाई है इसमें कि गाड़ी में पीछे बैठे हैं, बैठाए गए, और फ़िर उतारे गए। फिर बैठाए गए, फिर उतारे गए। रोज़ यही चलता रहता है”।

यह उत्तेजना की चाह सिर्फ़ एक गलत जीवन से निकलती है। क्योंकि जीवन में अन्यथा कुछ होता नहीं, इसीलिए आपको उत्तेजना चाहिए होती है। उत्तेजना की चाह यही बता रही है कि जब सही मौका आपके सामने होता है कुछ कर पाने का, तब आप उस मौके से डर कर पीछे हट जाते हैं। तुम्हारे हाथ में होता तो तुम यह दुर्घटना थोड़ी ही होने देते। यह तो हो गई। तुमसे पूछ कर होती तो तुम ही रोक ही देते। तुम्हारे हाथ में हो तो तुम बंधे-बंधाए जीवन में ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं आने दोगे। पर काफ़ी बड़ा परिवर्तन आ गया, और बिना तुमसे पूछे आ गया। तुमने ठीक कहा, “कुछ तो नया हुआ”। यह करीब-करीब वैसा ही है जैसे समझ लो कि कोई बहुत पुरानी कहानी चल रही हो, जो तुम हमेशा से जानते हो, और तुम्हें विवश किया जा रहा हो उसे पाँच-सौवीं बार देखने के लिए। और उस कहानी में धोखे से ही सही, कुछ अलग होने लग जाए, तो तुम्हारी नींद खुल जाएगी। वैसे तुम ऊँघ रहे होगे।

मान लो तुम्हारे सामने महाभारत चल रही है, और तुम अच्छे से जानते हो कि आगे क्या होगा। अर्जुन रोएगा कि- “मुझे मारना नहीं है,” और फिर कृष्ण खड़े होंगे और कहेंगे कि, “सुन गीता,” फिर थोड़ी देर में अर्जुन मान जाएगा और बाण चलाएगा। पहले भीष्म मरेंगे, फिर द्रोण जाएंगे, फिर यही सब कुछ है। यह सब तुम्हारे सामने चल रहा हो, तो तुम झपकी मार रहे होंगे कि अब कुछ नया हो जाए, जैसे तुम्हारी कर की दुर्घटना हुई थी। कि कृष्ण बोल रहे हैं अर्जुन को कि, “तू लड़,” और अर्जुन चढ़ बैठे कृष्ण के ऊपर, बात ही उलटी हो जाए, जैसे तुम्हारी गाड़ी उलटी हुई थी। अब तुम कहोगे, “कुछ हुआ, अब कुछ सुरूर-सा आया”। या तुम्हें युद्ध के मैदान द्रौपदी दिख जाये, तो तुम कहोगे, “गलत ही सही पर यह महाभारत ज़्यादा ठीक है। देख-देख कर कि, ‘हे अर्जुन,’ कान पक गए। कुछ नया तो लाओ। भले उसकी कुछ भी कीमत हो। भले ही गीता चली जाए, पर कुछ नया ले कर आओ”।

तुम्हारा मन नए के लिए कलप रहा है, उसे कुछ नया दो। और नए में हमेशा ख़तरा होता है। अगर उसे सहज ख़तरा नहीं दोगे, तो वो इस प्रकार का अनौचित्यपूर्ण ख़तरा अपने ऊपर ले लेगा। यह सब लोग जो ड्रग्स वगैराह लेते हैं, यह क्या कर रहें है? इनको जीवन का जो सहज-साधारण सुरूर है वही उपलब्ध नहीं है, तो इसलिए यह एक दूसरे तरीके का, भ्रान्तिपूर्ण, ख़तरनाक नशा करना शुरू कर देते हैं।

तुम्हें ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर किसी को यही नशा हो जाए कि- “मुझे तो गाड़ी में बैठ कर उसे भिड़ाने में आनंद आता है। यह नशा है, यह ड्रग्स की तरह ही है। यह नशा इसलिए है क्योंकि जीवन बेरौनक, जीवन रसहीन है। जब जीवन बेरौनक और रसहीन होता है, तब तुम जानते नहीं हो कि तुम्हारी वृत्तियाँ तुम्हारे साथ क्या-क्या खेल, खेल जाती हैं।

हो सकता है कि तुम पूरा विचार न करो, हो सकता है कि तुम पूरी योजना न बनाओ, लेकिन भीतर ही भीतर तुम्हारी वृत्ति तुम्हारे साथ खेल खेल देती है, और ऐसी घटनाएं पैदा कर देती है कि तुम्हारी गाड़ी जा कर किसी से भिड़ जाए। तुम उसको संयोगवश हुई दुर्घटना मत समझना। तुम्हारी वृत्ति ने पूरा इंतज़ाम किया था। “कुछ नया तो हो!”

कोई भी घटना ऊपर से जैसी दिखती है, वैसी ही हो, यह आवश्यक नहीं है। पता नहीं कितने किस्से हैं पूर्वनियोजित दुर्घटनाओं के। तुम्हारा मन अभी क्या आयोजन करने में व्यस्त है, तुम जानते नहीं, क्योंकि तुम अपनेआप को जानते नहीं।

तुम अगर जीवन से बिल्कुल उकता चुके हो, तो बहुत संभावना है कि तुम्हारी दुर्घटना हो जाए। इस दुर्घटना को संयोग मत मान लेना। यह तुम्हे अंतर मन की चीत्कार है, वो जीना नहीं चाहता। वो खुद ऐसी स्थितियाँ पैदा कर रहा है जिसमें तुम्हारी मृत्यु हो जाए।

मन क्या कर रहा है, कहाँ को जा रहा है, इसके प्रति ज़रा सतर्क रहो। कुछ भी यूँही नहीं हो जाता। कुछ भी यूँही नहीं पसंद आता।

जीवन के प्रति ज़रा खुलो। जब मन स्वस्थ होता है तो उसको फिर मिर्च-मसाले की बहुत आवश्यकता नहीं पड़ती।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पहले जो कर लिया, वही बहुत है || आचार्य प्रशांत संवाद || आचार्य प्रशांत

" जलना चाहते हैं या जगना चाहते हैं ? ", जीवन जीने के दो तरीके || आचार्य प्रशांत भाषण || आचार्य प्रशांत

प्रवचन नहीं, कोई विधि दीजिए || आचार्य प्रशांत संवाद || आचार्य प्रशांत मोटीवेशन स्टोरी || आचार्य प्रशांत