हमारी खुशियाँ दूसरों पर निर्भर क्यों?

 


हमारी खुशियाँ दूसरों पर निर्भर क्यों?

प्रश्नकर्ता: हमारी खुशियाँ दूसरों पर निर्भर क्यों होती हैं?

आचार्य प्रशांत: पूछ रहे हो हमारी खुशियाँ दूसरों पर निर्भर क्यों होती हैं। हमारा सबकुछ ही दूसरों पर निर्भर है। क्या तुम्हारे दुःख दूसरों पर निर्भर नहीं हैं? क्या सिर्फ़ तुम्हारी खुशियाँ दूसरों पर निर्भर हैं? कोई आकर तुम्हें हँसा सकता है तो कोई आकर के तुम्हें रुला भी तो सकता है। तुम्हारा अपना है क्या? उदास होते हो तो दूसरों की वजह से, उत्तेजित होते हो तो दूसरों की वजह से, ऊबते हो तो दूसरों की वजह से, आकांक्षा है तो दूसरों की, और डर है तो दूसरों से, सबकुछ तो दूसरों का ही है।

हम दूसरों के प्रभावों के अलावा हैं क्या? हम, मैं – मैं माने आत्म (ज़ोर देते हुए) आत्म – आत्म को हमने जाना कहाँ है? हम तो ऐसे हैं कि जैसे एक हिस्सा इसका, एक हिस्सा उसका, एक हिस्सा उसका। जैसे मोहल्ले के सौ घरों से थोड़ा-थोड़ा खाना इकट्ठा किया जाए और उसको मिला दिया जाए, ऐसे हम हैं: खिचड़ी। हमारा अपना कुछ है कहाँ? जब अपना कुछ नहीं होता, उसी स्थिति को गुलामी कहते हैं। तुम जो कुछ भी सोचती हो कि पाकर के ज़िन्दगी जीने लायक बनती है, तुम देखो ना उसे पाने की हसरत दूसरों से ही है: कोई पैसा देदे, कोई प्रतिष्ठा देदे, कोई नौकरी देदे, कोई प्रेम देदे। अपनी हालत कैसी है? भिखारियों जैसी: कहीं और से मिलेगा, कोई बाहरवाला दे देगा।

कुछ ऐसा भी है जिसको कहते हो कि कहीं से न मिले तो भी तुम्हारे पास है? कुछ ऐसा भी है जिसको कहते हो कि देने वाले का धन्यवाद कि उसने दिया ही है? हमारे भीतर ऐसा कोई भाव ही नहीं होता कि मिला है। इसीलिये हमारे भीतर कृतज्ञता नहीं होती, बस शिकायतें होती हैं। कभी तुमने गौर किया है कि हम शिकायतों से कितना भरे हुए हैं? हर समय हमारे भीतर एक निराशा, एक कुंठा, एक विद्रोह उबलता-सा रहता है। लगातार ये लगता रहता है कि जाकर के कहीं व्यक्त कर दें कि धोखा हुआ। एक खालीपन का भाव रहता है ना? सूनापन। ये लगता ही नहीं है कि मिला है कुछ। जब ये नहीं लगता है कि कुछ मिला है तो लगातार खड़े रहते हो पाने के लिये: तू देदे; तू देदे।

तुम अगर कभी गौर करो कि हमारा सूनापन कितना घना है तो हैरत में पड़ जाओगे। तुम सड़क पर चल रहे हो। एक आदमी आता है जिसे तुम बिल्कुल जानते नहीं। उससे भी तुम्हें अभिलाषा रहती है कि वो तुम्हें थोड़ी-सी स्वीकृति तो दे ही दे। तुम सड़क पर चल रहे हो और कोई तुम्हें देखे ही न, तो तुम्हें बहुत बुरा लगेगा। तुम अनजान लोगों से भी मान्यता चाहते हो—ऐसा हमारा भिखारीपन है। तुम बाज़ार जाकर कोई नया कपड़ा खरीद के ले आये हो, तुम पहन के निकलो और कोई ज़िक्र ही न करे, तुम्हें पसंद नही आयेगी ये बात। यही इंसान का अकेला कष्ट है कि उसको आत्म मिला नहीं है। मैं की उपलब्धि नहीं हुई है—इसके अलावा कोई कष्ट होता नहीं। इसीलिए जानने वालों ने लगातार जो कहा है ना कि संसार झमेला है, संसार दुःख है—उसका अर्थ यही है। उन्होंने ये नहीं कहा है कि संसार में कोई दुःख है। संसार में दुःख तब है जब तुम संसार के सामने याचक की तरह खड़े रहते हो। संसार में दुःख तब है जब तुम नहीं हो और बस संसार है, और तुम्हें संसार से अपनेआप को इकट्ठा करना है, निर्मित करना है, टुकड़ा-टुकड़ा। तब संसार दुःख है, अन्यथा संसार दुःख नहीं है।

हम सब का दुनिया से जो रिश्ता है वो बड़ी हिंसा का रिश्ता है। तुम कभी गौर करो, तुम कहती हो हम अपने सुख के लिये दूसरों पर निर्भर क्यों हैं। सोचो कि अगर तुम्हें किसी से सुख की उम्मीद हो और वो तुम्हें सुख न दे तो तुम्हारे मन में उस व्यक्ति के लिये कैसे विचार आयेंगे। तुम्हें किसी से उम्मीद थी कि वो आज आकर के तुम्हें कुछ देगा—उपहार। उसने नहीं दिया; तुम्हारे मन में उसके लिये सद्भावना उठेगी? या क्रोध उठेगा? उम्मीद टूटी। जब उम्मीद टूटती है तो कैसा लगता है? तुम सुख की सबसे ज़्यादा उम्मीद किस से करते हो? उन लोगों से जिनसे तुम्हारा तथाकथित प्रेम का रिश्ता है। उन्हीं से तो तुम कहते हो ना कि ये ज़िन्दगी में सुख देंगे, ख़ुशी मिलेगी। और जिससे तुमने उम्मीद की उसी से तुम्हारा हिंसा का रिश्ता बन जायेगा।

हम बड़े हिंसक लोग हैं, पूरी दुनिया से हमारा हिंसा का रिश्ता है और जो हमारे जितने करीब होता है हम उसके प्रति उतनी ज़्यादा हिंसा से भरे होते हैं क्योंकि उससे उतनी ज़्यादा उम्मीद होती है। उम्मीद होने का अर्थ ही यही है। बाप पड़ोसी से ये नहीं उम्मीद करेगा कि उसे पानी देगा पर बेटे से उम्मीद करेगा, और जहाँ उम्मीद है वहीँ दुःख है। इस चेतना में जीना सीखो कि हम भिखारी नहीं हैं। जब भी तुम्हारे भीतर ये विचार उठे कि दुनिया से कुछ पाना है, कुछ अर्जित करना है, कि ज़िन्दगी तो दौड़ने का और हासिल करने का नाम है, तब ये स्मरण करने की कोशिश करो कि हासिल किये बिना भी तुम बहुतकुछ हो, कि जो असली है वो तुम्हें मिला ही हुआ है और उसके लिये तुम्हें किसी के प्रमाण-पत्र की ज़रुरत नहीं है।

तुम्हें दुनिया से जाकर के अनुमति लेने की जरुरत नहीं है कि ‘मैं कुछ हूँ या नही हूँ’। एक ठसक रखो अपने भीतर कि ‘जैसे भी हैं, बहुत बढ़िया हैं’। मैं अहंकार की बात नही कर रहा हूँ। मैं इस श्रद्धा की बात कर रहा हूँ कि ‘अस्तित्व मेरा हक है’, कि ‘यदि हूँ तो छोटा या बुरा या निंदनीय नही हो सकता’। दुनिया में कुछ भी ऐसा है जो है तो पर उसे होना नही चाहिये था? दुनिया में कुछ भी ऐसा है क्या? कुछ भी ऐसा दिखा दो—छोटे से छोटा घास का तिनका भी ऐसा है क्या जो है तो पर उसे होना नहीं चाहिये था? है? जो भी कुछ है वो अपनी जगह पर पूरा है और ठीक है। वो कुछ बन के ठीक नहीं होगा, वो ठीक है। वो कुछ हासिल कर के जीने काबिल नहीं बनेगा, उसके होने में ही उसकी पात्रता है।

इंसान अकेला है जिसे ये लगता है कि वो ठीक नहीं है। अपने भीतर से ये भाव निकल दो कि ‘मैं ठीक नहीं हूँ’। ये हीनभावना हमारे भीतर बहुत गहरी गयी है। हम बड़ा छोटा अनुभव करते हैं, डरे-डरे रहते हैं। जब सब कुछ अपनी जगह पर है और उसमे स्थित है तो ये संभव कैसे है कि तुममें ही कोई खोट होगी, बताओ मुझे? सूरज अपनी जगह पर है, मिट्टी अपनी जगह पर है, छोटे-मोटे कीड़े भी अपनी जगह पर हैं, और खुश हैं, और कोई अड़चन नहीं है और कोई अव्यवस्था भी नही है, आउट ऑफ़ प्लेस कुछ भी नहीं है, तो तुम ही कैसे हो सकते हो? तुम सुंदर पक्षियों की तो बात करते हो; कहते हो ‘बड़े सुंदर हैं, बड़े सुंदर हैं’, सुंदर जानवरों की बात करते हो, पर जिनको तुम सुंदर नहीं भी कहते—मान लो कोई घिनौना सा कीड़ा है– होते हैं ना कई जिनको देख कर के ही उकताहट लगती है? वो हमारी दृष्टि है कि हम किसी को सुंदर बोलते हैं, किसी को कुरूप बोलते हैं। कोई गन्दा-सा लिजलिजा-सा कीड़ा है—क्या उसके भीतर भी ये हीनता होती है कि ‘मैं कुछ और बन जाऊँ’? होती है क्या? वो मिट्टी में पड़ा रहता है और तब भी मरा नही जा रहा तनाव में कि ‘क्या यार, ज़िन्दगी में कुछ हासिल नही किया और ये क्या रूपरंग है—गन्दा’, पर तुम हो जिसे अपना रूपरंग बदलने की बड़ी ज़रुरत है। है कि नहीं है? तुम हो जिसे अपना व्यवहार, अपना मन बदलने की बहुत ज़रुरत है। तुम हो जिसे ज़िन्दगी में तरक्की की और हासिलियत की बहुत ज़रूरत है।

जो भी कोई इस खेल में पड़ेगा वो धोखे ही धोखे खायेगा, और इस बात से डर मत जाओ, प्रभावित मत हो जाओ कि पूरी दुनिया ऐसे कर रही है तो यही तो सही होगा। तुम्हें क्या पड़ी है संख्या गिनने की, तुम्हें क्या पड़ी है ये देखने की कि सब लोग क्या कर रहे हैं। तुम्हें कितनी ज़िंदगियाँ जीनी हैं: अपनी या सब की? तुम ये देखो ना कि तुम्हारे लिये क्या उचित है। तुम्हारी एक ज़िन्दगी– तुम उसके लिये देखो क्या उचित है। या तुम इसी ढ़र्रे में पड़े रहोगे कि सब करते हैं तो ठीक ही होगा?

तुम्हरे पास यदि समझने की योग्यता है, जो तुम्हें बख्शी गयी है—तुमने अर्जित नहीं की है—उपहारस्वरुप मिली है, बहुत बड़ी चीज़ है जो तुम्हें उपहारस्वरुप मिली है। जब तुम्हारे पास वो समझने की काबिलियत है तो फ़िर ज़िन्दगी कैसे बितानी है? संसार को देखदेख के या फ़िर इस समझ पर? अगर संसार को ही देखदेख के और उन्हीं पर आश्रित रह के जीवन बिताना होता तो तुम्हारे भीतर समझ दी ही क्यों जाती? तुमने कभी ये देखा नहीं? तुम्हें तो फ़िर मशीन होना चाहिए था कि ‘जैसे सब चल रहे हैं वैसे ही। सारी मशीनें एक जैसी चलती हैं, तुम भी चलो।’ पर तुम्हें कुछ ऐसा दिया गया है जो अद्भुत है, विलक्षण है—काबिलियत—क्या? कि तुम जान सको, पहचान सको, समझ सको। उसमें जियो।

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