व्यर्थ है मन को बाँधना

 


व्यर्थ है मन को बाँधना

प्रश्नकर्ता: सर, एकाग्रता की कमी क्या है?

आचार्य प्रशांत: हिब़ा, जहाँ भी एकाग्रता है ना, वहाँ अन्यमनस्कता पहले ही मौजूद है। तुम किस को अन्यमनस्कता बोलती हो? जब एक वस्तु की ओर मन को केन्द्रित करना चाहती हो और मन दूसरी और दिशाओं में भाग रहा है, तो तुम क्या बोल देते हो कि ये अन्यमनस्कता है। हो कुछ नहीं रहा है, हो इतना ही रहा है कि तुम उसको एक जगह पर लगाना चाहते हो, मन का एक हिस्सा है जो चाहता है कि किसी एक जगह पर केन्द्रित हो जाए और दूसरे और कई हिस्से हैं, जिनकी अपनी दूसरी माँगें हैं, वो इधर-उधर जा रहे हैं।

एक तरफ जाने को तुमने नाम दे दिया एकाग्रता का। किताब की ओर जाओ तो तुमने नाम दे दिया एकाग्रता। और, वही मन अगर खिड़की के बाहर जाना चाहता है, सड़क पर जाना चाहता है, बाज़ार में जाना चाहता है, तो तुमने उसको नाम दे दिया है अन्यमनस्कता। एक को तुमने बहुत अच्छा घोषित कर दिया है कि एकाग्रता बड़ी अच्छी चीज़ होती है। तुम कहते हो कि फलाना बड़ा अच्छा विद्यार्थी है क्योंकि उसकी एकाग्रता क्षमता बहुत अच्छी है; दूसरे को तुमने गड़बड़ चीज़ घोषित कर दिया है। तुम कहते हो, “मन अगर इधर को गया तो ये अन्यमनस्कता है”, है ना? बात इसमें एकाग्रता और अन्यमनस्कता की है, या बात तुम्हारे लेबल की है – तुमनें किसी को क्या नाम दिया है? पढ़ते समय अगर तुम्हें फिल्म का ख़याल आता है तो तुम उसे क्या बोलते हो?

प्र: अन्यमनस्कता।

आचार्य: और अगर फिल्म देखते समय पढ़ने का ख़याल आ जाए तो वो क्या है? तो वो क्या है? वो भी तो अन्यमनस्कता ही है, तो एकाग्रता और अन्यमनस्कता इन दो शब्दों को एक जानो। जो अभी एकाग्रता है थोड़ी देर में अन्यमनस्कता बन सकती है, वो पढ़ाई जो अभी एकाग्रता है, जब मूवी हॉल में पहुँचोगी तो वही पढ़ाई अन्यमनस्कता कहलाएगी। एक को अच्छा और दूसरे को बुरा मानना बंद करो। मूल मुद्दे पर आते हैं, जो असली बात है उसकी चर्चा करते हैं, असली बात ये है कि मन बंटा हुआ क्यों है ? असली बात ये है की अलग अलग दिशाओं में मन भाग क्यों रहा है ?

तुमने एक दिशा को अच्छा बोल दिया है, वो दिशा पढ़ाई की होती है आमतौर पर, और बाकी सारी दिशाओं को तुमने अवैध घोषित कर दिया है, वो यही सब होती हैं – दोस्त यारों से बात कर लिया, ईधर-उधर मन कहीं जा रहा है, तुमने उसको कह दिया कि ये सब अन्यमनस्कता है। मूल सवाल ये है कि मन दस दिशाओं में भाग क्यों रहा है ? समझो, मन दस दिशाओं में क्यों भाग रहा है? छोड़ो एकाग्रता, छोड़ो अन्यमनस्कता, मूल मुद्दे पर आओ।

मन को लग रहा है कि कुछ खो गया है, उसको वो दस तरफ खोज रहा है। मन को कुछ चाहिए, और उसको पक्का नहीं है वो कहाँ मिलेगा इसीलिए वो जगह-जगह ढूंढता फिर रहा है। जैसे एक अँधा आदमी हो और उसकी कोई कीमती चीज़ खो गयी हो तो कभी इधर तलाशता हो और कभी उधर तलाशता हो, और जहाँ भी तलाशता हो उसको मिलती न हो, वैसा ही हमारा हाल है। हमारा हीरा खो गया है, हमारी कोई कीमती चीज़ है जो मिल नहीं रही है। और हम उसको बड़ी अजीब-अजीब जगहों पर तलाश रहें हैं।

हम उसको तलाशते हैं टी.वी. में, हम उसको तलाशते हैं हर तरह के मनोरंजन में, हम कभी कभी उसको धर्म में तलाशने लग जाते हैं। हम कभी उसको इज्ज़त मैं तलाशतें हैं कि इज्ज़त पा लूँ तो शायद मन शांत हो जाए। कहाँ कहाँ को भागता है मन, इधर को ही तो भागता है। इज्जत के पीछे , पैसे के पीछे। डिग्री मिल जाए कोई, दुसरे कोई किसी तरीके का ठप्पा दे दें, सेक्स के पीछे। हज़ार तरीके के उसने अड्डे खोज रखे हैं, जहाँ उसको शक है कि मुझे वो मिल जाएगा जो खो गया है। पर जो खो गया है वो मिलने का नाम नहीं ले रहा। जो खो गया है वो मिलने का नाम ही नहीं ले रहा। ये मत समझना कि ये कहानी कभी भी ख़त्म होगी, ये कहानी लगातार चलती रहेगी।

तुम जिसको एकाग्रता बोलते हो वो बहुत छोटी चीज़ है और बहुत थोड़ी देर के लिए आएगी, मन फिर जाएगा इधर-उधर। मन फिर जाएगा क्योंकि मन को जो चाहिए वो उसको मिल ही नहीं रहा है। जीवन भर भटकता रहेगा। अब ध्यान से देखतें हैं कि मन को क्या चाहिए जो उसको नहीं मिल रहा।

मन जिधर को भी जाता है इच्छा ही करता है ना। मन का किधर को भी जाना एक प्रकार कि इच्छा ही है। इस बात को गौर से समझो, मन जहाँ को भी जाता है, कुछ इच्छा होगी इसीलिए जाता है। और मन क्या चाहता है कि इच्छा कैसी हो जाए पूरी हो जाये या अधूरी रहे ? पूरी हो जाए। तुम्हें कुछ चहिये, तुम्हें उसकी इच्छा है। इच्छा कहती है, “मिल जाए”, अगर मिल जाए तो इच्छा का क्या होगा? इच्छा खत्म हो जाएगी। तो तुम अंततः क्या इच्छा कर रहे हो कि मेरी इच्छा खत्म हो जाए। यही तुम्हारी गहरी से गहरी इच्छा है कि सारी इच्छाएँ खत्म हो जाएँ। यही तुम्हारी गहरी से गहरी इच्छा है, क्योंकि जब भी तुम कुछ पाते हो तो यही तो कहते हो ना कि यह मिल जाए और इच्छा चली जाए। या यह कहते हो कि मिल जाए फिर भी इच्छा बची रहे? ये तो नहीं कहते।

गहरी से गहरी इच्छा यही है कि इच्छा ही खत्म हो जाए। यही मन चाहता है इसीलिए वो इधर उधर दस दिशाओं में भागता है। मन इच्छा-शून्य होना चाहता है, मन शांत होना चाहता है। और तुम क्या कोशिश कर रहे हो? तुम कह रहे हो नहीं, मन लगे यहाँ पर। और यहाँ को लगाना क्या है? एक और इच्छा। मन क्या चाहता है, इच्छा शून्य होना, वाकई। जो उसकी गहरी आकांक्षा है वो है कि आकांछा बचे ही ना। इसी तरीके से कोशिश कौन करता है ? एकाग्रता अपने आप में एक कोशिश है, वो कौन करता है? मन।

जितनी कोशिश करोगे मन उतना ताकतवर होगा, कोशिश अपने आप में एक इच्छा है। तुम जितनी कोशिश कर रहे हो तुम उतना ज्यादा इच्छा को ताकत दे रहे हो? पर तुम कोशिश कर-कर के कोशिश कर रहे हो, कोशिश के पार जाने की। तुम इच्छा कर कर के इच्छा को मारना चाहते हो, वो कैसे हो पाएगा। जब हम कह रहे हैं कि मन इच्छा-शून्य होना चाहता है तब हम यह कह रहे हैं कि मन बिलकुल शांत हो जाना चाहता है। पर जो तुम्हारी यह कोशिश है एकाग्रता की, ये मन को शांत होने नहीं देती। एकाग्रता खुद मन के ऊपर एक दवाब है, वो एक तरह की उत्तेजना है। मन शांत कैसे होगा? तुमने तरीका ही गलत चुन लिया हैं। ये सारे तरीके तो तुमको, जहाँ तुम्हे जाना है उस से बिलकुल विपरीत ले जाएँगे। एकाग्रता की कोशिश, ये, वो।

ध्यान से देखो कि मन को अगर शांति चाहिए तो उसे शांत हो जाने दो। मन अगर इधर-उधर जाता है तो बिलकुल कोशिश मत करो उससे लड़ने की। क्योंकि वो मन तुम्हारा ही है, और जो उससे लड़ने की कोशिश कर रहा है वो भी वही मन है। मन को दबा कर रखने की कोशिश वैसे ही है जैसे ये हाथ दूसरे हाथ को दबाने की कोशिश करें (दोनों हाथों को साथ लाकर कहते हैं)। कौन सा हाथ जीतेगा? दोनों में से कोई हाथ नहीं जीतेगा मगर मेरी ज़िन्दगी नरक हो जाएगी। मैं लगातार इसी कोशिश मैं रहूँगा की एक हाथ जीत जाए। कैसे जीतेगा ? दोनों हाथ मेरे ही हैं। मन का एक हिस्सा भाग रहा है और दूसरा हिस्सा उसको खींच रहा है और दबा रहा है। कैसे जीतोगे? हाँ पूरा मन युद्धभूमि बन जाएगा और वहाँ लड़ाईयाँ चालू हो जाएँगी। तुम बंट जाओगे। तुम्हारे टुकड़े टुकड़े हो जाएँगे, मानसिक तौर पर। तो यह कोशिश कभी मत करना, और मैं तुमको जो बात बोल रहा हूँ, ये नयी है। क्योंकि तुम्हे आज तक यही बताया गया है कि मन को खींच के लाओ वापस। मैं तुमसे कह रहा हूँ मन जहाँ जाता हो उसको जाने दो। क्योंकि मन से लड़ाई कर के आजतक न तो कोई जीता है न जीत सकता है।

मन को वहाँ जाने दो, उस के साथ-साथ जाओ। मन कुछ पाना चाहता है, हमने कहा था ना मन कुछ खो गया है, उसको वहाँ जाने दो, उसके साथ रहो, उसको दबाओ नहीं। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि तुम उसके साथ बेहोशी में रहो, तुम उसके साथ रहो, होश में और देखो की तू कहाँ जा रहा है अच्छ बता तुझे कहाँ जाना है। तुम पढ़ने बैठे ही और मन कह रहा है देखो खिड़की के बाहर मौसम बहुत अच्छा है। अच्छा ठीक है, तू मौसम को देखना चाहता है। चल देख लेते हैं मौसम को।

तुम्हें एक बड़ी मजेदार चीज़ मिलेगी, जैसे ही तुम मौसम को देखने जाओगे मन कहेगा, “नहीं नहीं ये नहीं देखना था।” तुम कहोगे, “ठीक है बेटा। तुझे ये नहीं देखना, तो बता क्या देखना है?” मन कहेगा, “वो ना खेल आ रहा है, खेल देखना है। अच्छा चलो मैच देखते हैं, साथ में देखेंगे, तू भी देख हम भी देखते हैं। मैच देखने बैठ जाओ, पाँच मिनट नहीं बीतेंगे कि वो उकता जाएगा, “नहीं नहीं, ये भी नहीं देखना था।” “अच्छा अच्छा, क्या चाहिए फिर? वो कुछ खाने का मन कर रहा था किचन की तरफ चलो, ठीक है कुछ खा लेते हैं। कितना खाएगा ? झूठी भूख है, दो निवाले, चार निवाले, अरे नहीं नहीं ये नहीं था वो दोस्त से बात करनी थी। अच्छा चलो बात कर लेते है। फालतू की बात भी कितनी देर करेगा ?

और इस पूरी प्रक्रिया में मन को दोष मत देना, मन को दबाना नहीं और न बेहोश हो जाना। बिलकुल देखते रहना कि क्या चाहता है। जैसे छोटा बच्चा होता है न जो जिद्द कर रहा होता है, उसके साथ कैसे रहते हैं, “हाँ क्या चाहिए? लो ये लो, और बोलो क्या चाहिए?” थोड़ी ही देर में मन को इस पूरी चीज़ की व्यर्थता दिखाई देने लगेगी। मन समझ जाएगा की मैं जो कुछ मांग रहा हूँ वो मुझे चाहिए ही नहीं। मन समझ जाएगा की ये सब कुछ कर के मैं वर्तमान से भाग भर रहा हूँ। जो मौजूद है, उस से भाग रहा हूँ। मन की सारी भाग-दौड़ रुक जाएगी और रुकते ही मन को वो मिल जाएगा जो उसे वास्तव में चाहिए।

बात समझ में आ रही है। मन जहाँ-जहाँ जाता है जाने दो उसे, सब्र रखो, कोई जल्दी नहीं है। क्योंकि ज़िन्दगी भर वो भागता ही तो रहा है और क्या करा उसने? तो जब वो जा रहा हो तुम भी साथ हो लो, दोस्त की तरह साथ हो लो। वाचफुल फ्रेंड। मैं तेरे साथ हूँ भाई, बोल क्या चाहिए तुझे? भविष्य की कल्पनाएँ करनी है? चल कर। तू भी कर, मैं देख रहा हूँ तू क्या कल्पना कर रहा है? कितनी देर तक कल्पना करेगा? क्या कल्पना करेगा? वही घिसी-पिटी कल्पनाएँ करेगा, ये है, वो है। शांत हो जाएगा और जैसे ही शांत होगा मन समझ जाएगा कि ये शान्ति ही तो चाहिए थी, ये इच्छा शून्यता ही तो चाहिए थी। फिर नहीं हिलेगा, फिर तुम्हे मन से लड़ना नहीं पड़ेगा। समझ में आ रही है बात, हिबा?

मन का जो पूरा तरीका है, उसकी जो पूरी व्यवस्था है वो जानते हो क्या है? वो ये है की जो उसके पास है, उसको वो भूलता है, पर चूंकि भूलता है इसीलिए, कष्ट में आ जाता है। कष्ट में आते ही वो ढूँढ़ता है, लेकिन ढूँढता वो सही जगह पर नहीं है, गलत जगह पर ढूंढ़ता है। मन को कुछ नहीं चाहिए होती मन को शान्ति चाहिए होती है, शान्ति उसे उपलब्ध है पर उसे भूल जाता है, अशांत हो जाता है। अशांत होते ही शान्ति को ढूँढना शुरू करता है। और कहाँ ढूंढ़ता है ? जहाँ है वहाँ नहीं ढूंढ़ता। वो उसको ढूँढता है भविष्य में, वो उसको ढूँढता है फ़ोन पर, वो उसको ढूँढता है फेसबुक पर, वो उसको ढूँढता है रिश्ते-नातों में वो उसको ढूँढता है सेक्स में, कि ये सब में शायद शांति मिल जाएगी।

और उन सब में उसको मिलती नहीं और जितना उसको मिलती नहीं वो उतना और व्यग्रता से ढूंढ़ता है। कहता है, “शायद इसलिए नहीं मिली क्योंकि मैंने जोर से दौड़ नहीं लगाई। मैं और ज़ोर से दौड़ लगाऊँ तो शायद मिल जाए शांति और जितनी ज़ोर से दौड़ लगाता है उतना और अशांत होता जाता है। ये मन की पूरी व्यवस्था है। इस तरीके से वो काम करता है इस बात को समझ लो जैसे ही समझ लोगे वैसे ही जान जाओगे की इसका पूरा चक्कार क्या है? इसका एक ही काम है भागना। और भागने के लिए इसको दोष मत दो। क्योंकि उसको कुछ चाहिए।

भागता इसीलिए है क्योंकि उसे कुछ चाहिए। जो उसको चाहिए वो उसे आसानी से मिल सकता है। तुम थोड़ी समझ से काम लो बस, जो उसको चाहिये वो उसको दे दो। उसको शान्ति चाहिये , उसको शांत हो जाने दो। उसको दबा के उसको शांत नहीं कर पाओगे। उसके साथ लड़ के उसको शांत नहीं कर पाओगे। होश में रहो, साथ में रहो, होश में रहो और मन के साथ में रहो। फिर इसका खेल देखना। पढ़ने बैठो, मन इधर-उधर भागे, बिलकुल कोशिश मत करो लड़ने की। थम जाओ बिलकुल, ठहर जाओ। और पूछो, हाँ भाई बताओ कहाँ जाना है तुम्हें?

जैसे ही उससे ये पूछोगे, उस की भागने की इच्छा आधी तो वहीँ खत्म हो जाएगी। वो भागने की इच्छा करता भी इसीलिए है क्योंकि तुम दबाने पर तुले हो। जितना तुम उसको दबाते हो उतना उसकी भागने की इच्छा होती है। जैसे ही तुम ठहर जाओ, कहोगे ठीक तेरी बात मानी, बोल क्या करना चाहता है? तो आधी इच्छा तो उसकी वहीँ खत्म, बाँकी बची आधी। आधी वो अपनी पूरी करने की कोशिश करेगा, तुम साथ में लगे रहो। जितना पूरा करने की कोशिश करेगा उतना उसको व्यर्थता दिखती जाएगी दौड़ धूप की। ऐसे तो पूरी नहीं हो रही। ऐसे भी पूरी नहीं हो रही ऐसे भी पूरी नहीं हो रही। नहीं हो रही ना पूरी बेटा। दिख रहा है ? हाँ दिख रहा है। तो फिर क्या करना है? कुछ नहीं करना है।

जैसे ही कहेगा, “कुछ नहीं करना है”, वो शांत हो गया। अब तुम्हे कोई एकाग्रता नहीं चाहिए। जरूरत ही नहीं है एकाग्रता की। एकाग्रता का अर्थ तो है अन्यमनस्कता से लड़ाई। उस लड़ाई की अब जरुरत ही नहीं है। तूम एकाग्रता अब हो ही नहीं। मन भागना ही नहीं चाह रहा तो एकाग्रता की क्या ज़रूरत है। मन अब मौजूद है। अब अवलोकन चल रहा है। इस अवलोकन से एक नयी चीज़ निकलेगी। इनसाईट, अंतर्दृष्टि। जो कंसंट्रेशन से कभी नहीं निकल सकती एकाग्रता तुमको सतह सतह पे बता सकता है की क्या है। पर वो तुमको, गहरी पैनी अंतर्दृष्टि नहीं दे सकता, अंतर्दृष्टि समझते हो ? एक ऐसी नजर जो छुपे हुए को भी जान लेती है। जो नहीं लिखा है उसको भी पढ़ लेती है। जो नहीं कहा जा रहा है उसको भी सुन लेती है। वो चीज़ तुमको कंसंट्रेशन नहीं दे सकता।

इसी कारण तुमनें एकाग्रता कर के जो भी करा है उसमे तुम्हे कुछ विशेष मिला नहीं है। थोड़ा बहुत कुछ मिल गया है। पर पूरा-पूरा कभी नहीं मिला है। क्योंकि पूरा पूरा कभी एकाग्रता से मिलता भी नहीं है। एकाग्रता से नहीं मिलता, वो ध्यान से मिलता है।

प्र: सर, अगर ऐसे देखा जाए तो इच्छाएँ तो बहुत सारी हैं। फिर मन तो कभी शांत ही नहीं होगा हमारा ?

आचार्य: मन तब तक शांत नहीं होगा जबतक तुम उन इच्छाओं को महत्व देते रहोगे। और जानते हो तुम इच्छाओं को महत्व कैसे देते हो ? उनको दबा कर के। इच्छा बड़ी, और बड़ी, और बड़ी, जानते हो कैसे हो जाती है? क्योंकि तुमने उसके साथ बड़ी जबरदस्ती करी है। इच्छा के साथ जितनी जबरदस्ती करोगे वो उतनी भीमकाय होती जाएगी।

प्र: सर अभी आपने कहा की एकाग्रता से नहीं, कोई चीज़ हमें ध्यान से मिलती है ? सर अगर हम एकाग्र हीं नहीं होंगे तो ध्यान कैसे लगा पाएँगे ?

आचार्य: तुम समझे ही नहीं हो फिर एकाग्र का मतलब। तुम्हारे मन में एकाग्र का वही अर्थ घूम रहा है जो पहले से ले कर बैठे हो। जब एकाग्र हो तो तुम लड़ रहे हो लगातार।

प्र: मगर मन से तो कोई लड़ ही नहीं सकता।

आचार्य: पर तुम तो लड़ते हो ना, असंभव को संभव करना चाहते हो। अगर नहीं लड़ते तो एकाग्रता का प्रश्न नहीं पैदा हो सकता न बेटा। एकाग्रता का तो अर्थ ही है लड़ना। और जिस एकाग्रता में लड़ाई नहीं, वो तो एकाग्रता रही ही नहीं वो तो ध्यान हो गया। एकाग्रता का तो अर्थ ही है लड़ाई। इसीलिए मैंने शुरू में ही कहा था कि एकाग्रता के साथ ही अनाय्मानास्क्ता आती है, यदि एकाग्रता न हो तो क्या तुम बात भी करोगे एकाग्रता की? तुम्हे एकाग्रता की बात भी इसीलिए करनी पड़ती है, तुम कहते हो, “मैं एकाग्र होना चाहता हूँ।” ये तुम्हें बात भी इसीलिए करनी पड़ती है क्योंकि तुम हर समय कैसे रहते हो? अन्यमनस्क। तो एकाग्रता का तो अर्थ ही है बिखरा हुआ मन। वर्ना एकाग्रता का सवाल ही क्यों पैदा होगा?

प्र: अगर हम पढ़ रहे हैं और एक ख़याल आता है कि नहीं चलो टीवी देखते हैं और फिर एक ख़याल ये भी आता है कि कल पेपर है चलो टीवी नहीं देखेंगे, पढेंगे। तो फिर अन्यमनस्कता कहाँ है?

आचार्य: तुमनें जीवन भर यही किया ना कि पढ़ने बैठे और मन भाग रहा है टी.वी. की ओर, और मन भाग रहा है इधर उधर। ठीक? वो तुम्हारी नहीं सबकी कहानी है। ये जो दिमाग में ध्यान आ रहा है इसने मन को दो हिस्सों में बाँट दिया। एक हिस्सा कह रहा है देखो। दूसरा हिस्सा कह रहा है पढ़ो।

प्र: सर ,एक ख्याल आया था और वो चला गया।

आचार्य: चला नहीं गया। तुम मन को समझ नहीं रहे हो। कोई भी ख़याल कभी जा नहीं सकता। कभी नहीं जा सकता। फ्रायड की पूरी पूरी खोज ही यही है मन की। पूरा जो उसका मनोविज्ञान का विश्लेषण है वो यही है।

प्र: सर, इस तरह से तो आदमी पागल है ?

आचार्य: आदमी पागल है। आदमी पागल है, पूरी तरीके से। फ्रॉयड की पूरी रिसर्च ही यही है कि कोई ख़याल कभी मन से जा सकता नहीं है। पुराने समय में हमने लगातार ये माना था की अगर विचार को अहमियत ना दो, अगर विचार को दबा दो, चित्त निरोध कर दो, तो वो ख़याल चला जाता है। फ्रॉयड ने बहुत प्रयोग कर के एक नयी चीज़ बताई हमको। उसने कहा जाता नहीं है, मन का एक कमरा होता है, मन एक कमरे जैसा है, उस कमरे का एक बसेमेत भी है। तुम जिस विचार को दबा देते हो वो उस कमरे से तो हट जाता है, ये कमरा सोच का कमरा है। तुम्हें लगेगा नहीं कि विचार बचा है। पर वो कमरे से हट के तहखाने में घुस जाता है, वो दिमाग के तहखाने में घुस जाता है। और वहाँ पर जा कर के वो तुम्हारे जीवन को जबरदस्त रूप से प्रभावित करता है। तुम्हें दिन मैं सेक्स का ख़याल आता है तुम उसको दबा देते हो वो रात में सपना बन के आएगा।

तुम्हे पता भी नहीं चलेगा की मुझे ये सपने क्यों आते हैं? वो सिर्फ इसी कारण आते हैं क्योंकि दिन में जब वो ख़याल आता है तो तुम कहते हो, “छिः! गन्दी बात” और उसको दबा देते हो, अब वो बेसमेंट मैं चला गया। अब वो सपना बनेगा। सपना अगर नहीं बना तो भी वो तुम्हारी वृत्ति बन जाएगा और तुम पाओगे की अजीब घटनाएँ हो रही हैं। लडकियाँ सामने से निकलती हैं और उनकी तरफ नज़र उठ जाती है अपने आप। क्या नज़र तुमसे पूछ के उठ रही है? क्या नज़र तुमसे पूछ के उठ रही है ? नहीं अपने आप उठ रही है। ये कहाँ से उठ रही है ? ये उसी ख़याल की करतूत है जिसको तुमने दबा दिया था। और वो ख्याल बहुत छोटा सा था वो ख़याल बहुत छोटा सा था।

तुम पाओगे कि जिस प्रकार के अपराध जिस समाज में सबसे ज्यादा होते हैं वो समाज वही है जिस ने उन बातों पर सबसे ज्यादा बंदिश लगा रखी होती है। जितना दबाओगे तुम विचार को उतनी ऊर्जा दोगे। तुम सोचते हो की दबाने से विचार चला गया। मन हँसता है मन कहता है, “पगले, तुम जानते भी नहीं हो कि वो दबाने से जाता नहीं है वो स्प्रिंग की तरह है, स्प्रिंग को दबाओ तो स्प्रिंग छोटी हो जाती है पर साथ ही वो कुछ इकठ्ठा कर लेती हो ? क्या ? जितनी उर्जा तुमने इस्तेमाल की उसको दबाने के लिए, स्प्रिंग उसको पी गयी है तुमको लग रहा है स्प्रिंग तो गयी, छोटी सी हो गयी है, कहाँ बची? तुमको पता भी नहीं है अब होगा क्या? तुम्हारी ही इस उर्जा का इस्तेमाल कर के अब वो स्प्रिंग उछलेगी और फिर तुम ये कहोगे ये ? मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? ये तुम्हीं ने किया है।

उसको दबाने की कोशश कर कर के तुमनें उसको ताकतवर बना दिया है। ये हत्यारे, ये बड़े बड़े लुटेरे, ये बलात्कारी, तुम्हें लगता है कहाँ से आते हैं ? ये सब दमन के परिणाम हैं, तुम इतना दमन करते हो कि अंततः विस्फ़ोट हो जाता है। तुम अपने आप को ही इतना दबाते हो कि अंत में बिलकुल ज्वालामुखी फटता है और फिर तुम कहते हो, “ये क्या हो गया?” उदाहरण के लिए जो लोग कभी गुस्सा व्यक्त नहीं करते, वो जिस दिन गुस्से में आते हैं, उस दिन दूर-दूर रह लेना। जो आदमी बिलकुल पी जाता हो वो जिस दिन फटता है, जो आदमी बात-बात पर चिढ़ जाता है, बात-बात पर गुस्सा व्यक्त कर देता है वो ठीक है। वो कोई बड़ा नुकसान नहीं पँहुचा सकता लेकिन जो आदमी कभी गुस्सा व्यक्त न करता हो उसे भगवान बचाए। वो जिस दिन फटता है उस दिन दो-चार लाशें गिरती हैं। क्योकि वो जो उसने व्यक्त नहीं होने दिया वो उसके भीतर अब इकठ्ठा हो रहा है, इकठ्ठा हो रहा है। फिर फटेगा, जबरदस्त रूप से फटेगा।

संचय होता रहा है उसका। जैसे कि तुम्हारी साँस रोक दी जाए तीन मिनट को और फिर जब छोड़ा जाए तो कैसी साँस लोगे? ( तेज़ी से साँस लेकर दिखाते हैं ) जैसे पी जाना चाहते हो पूरी दुनिया को ही, ऐसे साँस लोगे। वैसी ही हालत होती है हमारी, हमें लगातार घर परिवार ने धर्म ने शिक्षा ही यही दी है कि दबाओ, और यह शिक्षा बड़ी ही उलटी शिक्षा है। वास्तव में पूछो तो किसी भी जानने वाले ने कभी भी दमन की शिक्षा नहीं दी है, पर नासमझों को बात समझ में नहीं आयी, तो उन्होंने कहा इसका मतलब शायद यह है कि दबाओ।

कुछ अच्छी बातें हैं वो जो मन में आनी चाहिए और कुछ बुरी बातें हैं वो मन में नहीं आनी चाहिए। छि छि ये तो छि छि है और नासमझों को यह समझ में नहीं आया कि वो छि छि दबा-दबा कर के पूरे मन में भर गयी है और पूरा मन अब बिलकुल महक रहा है उसी से, इसीलिए अगर तुम किसी मनोचिकित्सक के पास जाओ और तुम उससे कहो कि मुझे गुस्सा बहुत आता है या मैं निराश बहुत रहता हूँ या मैं अचानक फट पड़ता हूँ या मेरे भीतर सेक्स को लेकर बड़ा तूफ़ान मचा रहता है। तो वो तुमको एक अकेले कमरे में छोड़ देगा और कहेगा, कोई कैमरा नहीं लगा यहाँ कुछ नहीं है, दीवारों पे जितना हाथ मारना है मारो, पागल हो के चिल्ला सकते हो चिल्लाओ, बच्चा बन सकते हो, कुत्ता बन सकते हो, कपडे फाड़ दो, चीज़ें तोड़ दो। जो करना चाहते हो करो, इसको रेचन कहते हैं, इसको कहते हैं रेचन।

जिबरिश एक तकनीक है, वो यही करती है। तकनीकि रूप से कैथारसिस इसका नाम है, रेचन हिंदी में, अंग्रेजी में कैथारसिस । कैथारासिस का अर्थ ही यही है की यह गन्दगी जो इकठ्ठा कर ली है इसको बहने दो क्योंकि और कोई तरीका नहीं है इसके ख़त्म होने का बहने के आलावा। तो बिलकुल मत सोचना की कोई भी विचार तुम खत्म कर सकते हो, जिसको तुमने ख़त्म जान लिया इस वक़्त वो तुम पर हँस रहा होगा। कह रहा होगा, “खत्म हो गया हूँ? अभी बताऊँगा मैं।मैं दिख नहीं रहा हूँ छुप गया हूँ, मैं जब सामने आऊँगा तो तेरी हवा खराब हो जाएगी। तुझे पता भी नहीं चलेगा कि तेरा यह रूप भी है।

लोगों के देखे हैं ना, कई-कई रूप होते हैं। तुम कहते हो यह तो बड़ा सभ्य आदमी लगता था इसने ऐसा कैसे कर दिया? वो वही है, वो छुपा हुआ था अन्दर वो निकल पड़ा, अन्दर का दानव। वो दानव है नहीं, वो एक छोटा सा विचार होता है पर तुमको शिक्षा यह मिली हुई है की इसको दबाओ। तो दबा-दबा के तुम उसको बड़ा कर देते हो जैसे गुब्बारा, फुलाए जा रहे हो, फुलाए जा रहे हो। था कुछ नहीं, छोटी सी बात थी। छोटा सा बच्चा है, ज्यादा उम्र नहीं दस-बारह ही साल का, वह जा रहा है किसी लड़की से बात करने, माँ ने टोक दिया, “अब बड़े हो रहे हो, लड़कों में खेला करो लड़कियों से नहीं बात करते।”

हो कुछ नहीं जाता। थोड़ा-बहुत खेलता, कूदता जो आम तौर पर होता है बच्चों में, चुहलबाज़ी करते, थप्पड़-थूप्पड़ चलाते, वापस जाके सो जाता, खत्म। पर अब टोक दिया गया है, अब वो कहेगा गड़बड़ है बात कुछ, अब वो खेलेगा कम लड़कियों की ओर ज्यादा देखेगा, कहेगा, “रोका गया है बात कुछ है, वर्ना रोका नहीं जाता।” बात कुछ भी नहीं थी, बड़ी स्वाभाविक सी बात है। एक लड़का है एक लड़की है वो आपस में मिलना चाहते हैं इसमें कोई बड़ी बात नहीं पर तुम्हें रोक दिया गया अब बड़ी बात हो गई और अब मन उधर को ही भागेगा और जितना रोका जाएगा उतना ही भागेगा। जितना ज्यादा रोका जाएगा उतना ही भागेगा। हैरान कर देगा तुमको, पगला जाओगे। तुम जैसे हो ठीक हो, कोई दिक्कत नहीं है।

जिसने तुमको बनाया है, जिस स्त्रोत से तुम आए हो, उसी स्त्रोत से तुम्हारी इच्छाएँ भी आती हैं। इच्छाओं को पाप मत समझ लेना। मन पूरा होना चाहता है इसी कारण मन में इच्छा है, कोई इच्छा पाप नहीं होती। नासमझी पाप होती है, बेवकूफी पाप होती है, इच्छा पाप नहीं है। बेहोशी पाप है, क्योंकि होश लेकर के आये हो तुम, इच्छा लेकर के आये हो न, होश भी है। होश में जियो। इच्छा भी उठे तो उसे देखो ध्यान से, होश में। उससे लड़ो नहीं, दबाओ नहीं। मामला क्या है? बात क्या है? और इसी का नाम परिपक्वता है। मैं अपनी इच्छाओं को भी समझता हूँ, मैं इस मन के हर क्रिया कलाप को समझ रहा हूँ।

“अब डर लगता है यह सब सुन के कि सर इच्छा तो बड़ी भयानक भयानक है, अगर पूरी करने चलें तो क्या होगा?” कुछ नहीं होगा। पहली बात तो यहाँ बैठे हुए हो इसीलिए इच्छा बड़ी-बड़ी है। मन उस छोटे बच्चे की तरह है जो बैठ के तो बहुत मचलता है पर जब उससे पूछो अच्छा क्या चाहिये चलो बाज़ार खरीद देते हैं ? तो उसे कुछ विशेष नहीं चाहिए, कुछ विशेष नहीं चाहिए। उसको असल में ध्यान चाहिए। वो यह सब करता ही इसीलिए है क्योंकि कोई ध्यान नहीं दे रहा ना उस पर। ध्यान दे दो, पूछ लो, क्यों उदास है, क्यों परेशान है? क्यों मूड ख़राब है? वो ठीक हो जाएगा। छोटे बच्चे से ज्यादा बड़ा नहीं होता ये (सिर की तरफ इशारा करते हुए)। इसे प्यार से रखो, लड़ो नहीं।

तुम्हारे साथ एक छोटा बच्चा हो उससे लड़ोगे? “अरे तू पापी, आज फिर तूने चड्डी में कर दी। दुष्ट, राक्षस, असुर, अधम, नर्क में सड़ेगा।” बच्चा तुरंत बड़ा हो जाएगा ये सब बातें सुन के। पाँच सात शब्द नए सीख लिए उसने – दुष्ट और राक्षस और असुर। दिल तो बच्चा है जी। (मुस्कुराते हुए)

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