न इच्छायें तुम्हारी न इच्छाओं से मिलने वाली संतुष्टि तुम्हारी

 


न इच्छायें तुम्हारी न इच्छाओं से मिलने वाली संतुष्टि तुम्हारी

आचार्य प्रशांत: सब कुछ तो सिर्फ़ जानना है ना? खुद जानना। बस सुन नहीं लेना। किसी ने बोल दिया कि इंजीनियरिंग कर लो, तो कर ली। अब किसी ने बोल दिया कि चलो सॉफ्टवेयर वाली जॉब ले लो, तो ले ली। फिर किसी ने बोल दिया कि अब ये है, ये इंडस्ट्री ज़्यादा अच्छी चल रही है, तो उसमें चल दिए; खुद जानना।

प्रश्नकर्ता: सर, खुद जानने का क्या मतलब है? अब किसी ने कुछ बताया तो हमने सुना…

आचार्य: तो इस बात की मुझे पूरी पूरी चेतना रहे कि मैं सिर्फ उसकी बात सुन रहा हूँ, सूचना के तौर पर। इनफॉर्मेशन के तौर जोी। इनफॉर्मेशन, डिसीज़न न बन जाए। बात समझ रहे हो? मैं गूगल सर्च करता हूँ, गूगल मुझे क्या देगा? इनफॉर्मेशन। इनफॉर्मेशन ले लूँ, ठीक। डिसीज़न ले लिया! इनफॉर्मेशन तो बाहर से ही आनी है। इनफॉर्मेशन तो मैं लूँगा ही लूँगा बाहर से। उसमें कोई दिक्क्त नहीं है। डिसीज़न कौन लेगा?

प्र: करो मन की, सुनो सबकी।

आचार्य: नहीं, मन की नहीं। मन तो बाहर की ही करेगा।

बुद्धि की। बुद्धि, मन के बियॉन्ड होती है। बुद्धि मन से आगे होती है।

प्र: नहीं सर, बुद्धि की नहीं, मन की सुननी चाहिए।

हाँ सर, मन की सुननी चाहिए।

आचार्य: मन तो तुमसे क्या करवाएगा?

प्र: मन तो चंचल होता है।

नहीं सर, करना चाहिए मन की, बुद्धि तो विवशता हो जाती है।

आचार्य: अच्छा तुम, ये उदाहरण देना तुम्हें मुझे बहुत अच्छा लगता है – तुम एक पिज़्ज़ा की दुकान के सामने से निकल रहे हो। तुमने वहाँ देखा लोग खा रहे हैं। तुमने उसका बोर्ड देखा, तुम्हारा मन कर गया, अंदर जाओ। अब तुम बोलोगे, ये मेरा मन है, अंदर जाने का। ये तुम्हारा मन हैअंदर खाने का?

प्र: नहीं सर, ये तो कंडीशन है।

आचार्य: कंडीशन नहीं। मन तुम्हारा जो भी करेगा ना, वो एक बाहरी चीज़ ही होगी।

प्र: सर, ये तो हो गए छोटे-मोटे उदाहरण…

आचार्य: तुम मुझे कोई उदाहरण दे दो जहाँ पर तुम्हारा मन कुछ ऐसा कर रहा हो जो उसकी वास्तविक पैदाइश है।

प्र: पर सर, जो संतुष्टि हमें मिलेगी, वो मन से मिलेगी।

आचार्य: मन से सटिस्फैक्शन नहीं मिलता। मन से सिर्फ, इच्छाएँ पूरी होने का भ्रम होता है। अब तुम जैसे अंदर जाओगे, पहली बात तो तुमने ये गलती कर दी कि तुमने ये मान लिया कि ये मेरे मन की इच्छा है। ये तुम्हारे मन की इच्छा नहीं है। ये तुम्हारे मन की इच्छा नहीं है। ये पिज़्ज़ा हट वाले की इच्छा है। मन की जो भी इच्छा होती है ना, वो हमेशा किसी और की होती है, तुम्हारी नहीं होती।

बुद्धि तुम्हारी अपनी है, मन हमेशा किसी और का होता है। मन बनता ही बाहरी प्रभाव से है।

प्र: सर, ये आप फिफ्टी-फिफ्टी परसेंट कह सकते हो, पर…

आचार्य: नहीं ये, फिफ्टी फिफ्टी कोई व्यापार नहीं हो रहा है यहाँ पर। ये यहाँ पर, (हँसते हुए) ‘आधी तेरी-आधी मेरी’, ये नहीं चलता है। सत्य, सत्य है।

प्र: पर सर सटिस्फैक्शन तो हमें ही मिलता है।

आचार्य: वो तो होगा ही। तुम अंदर जाओगे, पिज़्ज़ा हट में पिज़्ज़ा खाओगे। तुम कहोगे, सटिस्फैक्शन मिल गया। मैं कह रहा हूँ, जब डिज़ायर ही तुम्हारी नहीं थी, तो सटिस्फैक्शन भी झूठा है। तुम्हें भ्रम हुआ था, कि तुम्हारी डिज़ायर है कि तुम्हें पिज़्ज़ा मिले। वो डिज़ायर तुम्हारी थी नहीं, वो डिज़ायर तुममें पैदा की गयी। तुमको बोर्ड दिखाया गया। तुम्हारी नाक में गंध पड़ी पिज़्ज़ा की। ये डिज़ायर तुम्हारे भीतर पैदा करी किसी और ने। तुम्हें भ्रम हुआ कि वो मेरी डिज़ायर है। और कहते हो, मेरा मन कर रहा है। तुम्हारा मन कर ही नहीं रहा था। मन किसी और का था, तुम्हारे भीतर वो इच्छा आरोपित की गयी, ट्रांसप्लांट की गयी।

अब उसके बाद तुम जाते हो, पिज़्ज़ा खा लेते हो। फिर तुम कहते हो, मेरा सटिस्फैक्शन हो गया। जैसे वो डिज़ायर झूठी थी, सटिस्फैक्शन भी झूठा है। उसका प्रूफ क्या है? उसका प्रूफ ये है, कि दो घंटे बाद तुम्हारा मन किसी और चीज़ के लिए भागेगा। इस सटिस्फैक्शन की जो उम्र है, वो दो मिनट भी नहीं होती। दो मिनट भी नहीं होती इसकी उम्र। एक सटिस्फैक्शन पूरा करो, दूसरा खड़ा हो जाता है। और तुम रह वैसे के वैसे ही जाते हो।

प्र: सर, मतलब की आज तक हमने जितने भी काम किये हैं, अब तक जितनी भी चीज़ें चल रही हैं, सब गड़बड़?

आचार्य: इतना अगर बस देख लो, बस कहो भर नहीं। क्योंकि अभी तो जो तुमने कह दिया, ये सिर्फ शब्द हैं। ये बात अगर तुम समझ लो, गहराई से, पूरी पूरी तरीके से समझ लो कि तुम जो भी कुछ कर रहे हो, उसमें तुम्हारा अपना कुछ नहीं है। वो सब कुछ किसी और के द्वारा हो रहा है, और तुम ग़ुलाम की तरह करे जा रहे हो तो तुम्हारे भीतर से ऐसी आग उठेगी कि तुम्हारी सारी गड़बड़ जल जाएगी। फिर तुम कुछ और बन जाओगे।

प्र: जैसे आपने अभी ये बताया, ये हर एक पर लागू नहीं होता।

आचार्य: जैसे? मुझे बताओ।

प्र: सर, जैसे कि जितने भी डिसिशन मैंने अपने मन से किये हैं ना, उस वक्त अगर मैं अपनी बुद्धि से करता तो मेरा बहुत नुकसान होता।

आचार्य: मन और बुद्धि को कैसे अंतर कर रहे हो? अंतर क्या है दोनों में?

प्र: सर, मन और बुद्धि?

आचार्य: जब जानते ही नहीं, तो क्यों इस्तेमाल कर रहे हो?

प्र: नहीं सर, जानता हूँ सर

आचार्य: क्या?

बुद्धि का अर्थ होता है इंटेलिजेंस।

प्र: हाँ सर।

आचार्य: और मन का अर्थ होता है, तुम्हारे माइंड की वो सारी वृत्तियाँ, जो अपने आप चलती हैं, आटोमेटिक मोड में। आटोमेटिक चलती हैं।

इंटेलिजेंस तुम्हारी है, और मन ऑटोमेटिक है। उसपे तुम्हारा कोई कंट्रोल नहीं है। अभी यहाँ पर कुछ मनोरंजक चीज़ होनी शुरू हो जाए, तो तुम्हारा मन क्या कहेगा? “उधर देखो, ये तो बेकार की बात है। पता नहीं क्या भाषणबाज़ी चल रही है। उधर देखो।” हाँ अगर तुममें बुद्धि है, इंटेलिजेंस है, विवेक है, तो फिर, तुम इधर रह जाओगे।

प्र: सर, आप हर किसी को ये क्यों मान के चलते हो, कि पता नहीं है। बहुतों को पता रहता है।

आचार्य: पता कैसे रहता है? पता बुद्धि से होगा ना? पता करने वाली जो यूनिट है, वो हमेशा बुद्धि है।

प्र: हाँ सर।

आचार्य: फिर? मन तो तब भी नहीं आया। अगर कोई बोले मुझे पता है, तो वो जो “जानने” की क्षमता है, वो बुद्धि की ही है, इंटेलिजेंस की है। वो मन की नहीं है। मन की कोई अक़्ल नहीं होती। मन कुछ नहीं जानता। मन सिर्फ चल देता है। वो कुछ जानता नहीं है।

प्र: सेल्फ कंट्रोल।

आचार्य: मन पर किसी का कोई वश नहीं होता, मन में सेल्फ है ही नहीं। मन हमेशा बाहर वाले का है। तुम एक हरकत बता दो मन की जो तुम्हारी अपनी है? मन में कोई सेल्फ कंट्रोल नहीं होता। सेल्फ कंट्रोल करने वाली ही बुद्धि है। जो कंट्रोल करे, वो बुद्धि ही है।

प्र: सर, एक सवाल है। मैं परिवार में सबसे छोटा हूँ, सब प्यार भी करते हैं, सबसे छोटा हूँ। सब अच्छा है, पर परेशानी यह है, कि मेरी सोच पूरे परिवार से अलग है। इस वजह से परिवार में द्वंद्व भी है। तो मुझे क्या करना चाहिए? मैं उनके जैसा हो जाऊं?

आचार्य: ऐसा कर पाओगे कोशिश कर के भी?

प्र: सर मैं एक सवाल इसी के उससे पूछना चाहता हूँ। अभी इसने कहा कि ये फैमिली में छोटा है। और सब प्यार करते हैं। और इसकी अलग अलग है। इसीलिए परिवार में द्वंद्व भी है। तो ये कैसे कह सकता है कि इसे सब प्यार करते हैं?

(छात्र हँसते हैं)

आचार्य: नहीं, उसके शब्दों पर मत जाओ। अभी इस बात को समझो कि जो वो मुद्दा उठा रहा है, वो मुद्दा बेकार नहीं है। वो ये कहने की कोशिश कर रहा है, कि हम इस बात को समझें, कि ये प्यार क्या चीज़ होती है? और इसका सोच से क्या संबंध है? उसने जिस तरीके से कहा, इस पर मत जाओ। पर जो बात कह रहा है, उसमें सार्थकता है।

आप एक और तो ये कहते हो कि मुझे मेरे घरवालों से बहुत प्यार है। हम सब कहते हैं। दूसरी और हम ये भी कहते हैं, कि वो मुझे नहीं समझते, मैं उन्हें नहीं समझता। बिना समझे ये प्यार हो कैसे गया?

प्र: अब ये प्यार का मतलब?

आचार्य: मोह हो सकता है, बंधन हो सकता है, जकड़न हो सकती है, पर प्रेम तो बिना समझे नहीं हो सकता। तुम जिस चीज़ को समझते नहीं, उसको प्रेम कर कैसे लोगे?

तुम प्रेम कैसे कर सकते हो, जब तुम समझ नहीं रहे हो? हाँ, तुम कब्ज़ा कर सकते हो। यू मुग्ध हो सकते हो। तुम पर जूनून सवार हो सकता है। लेकिन फिर बिना समझे तुम प्रेम नहीं कर सकते। क्या प्रेम बिना समझ के हो सकता है?

प्र: ये तो पता नहीं पर…

आचार्य: तुम बताओ ना? पता नहीं, नहीं। और अगर तुम कह रहे हो की दोनों एक साथ हैं , तो इसका मतलब है, दोनों में से कोई एक है, जो है नहीं। या तो लव नहीं है, या अंडरस्टैंडिंग नहीं है। तुम कहते हो, मैं अपनी सोच बदल लूँ?

सोचना मतलब समझ का प्रयोग।

सोचना एक क्रिया है, इन द प्रेजेंट मोमेंट, राइट? इट्स एन एक्टिव कंटीन्यूअस वर्ब, राइट? ‘सोचना’

बदली जा सकती है क्या? कोशिश कर के भी, क्या बदली जा सकती है? अगर मुझे दिखाई पड़ ही रहा है, कि ये सफ़ेद है, और ये काला है, तो मैं कोशिश करके क्या उल्टा सोच सकता हूँ?

जो मुझे दिख ही रहा है, उसको अनदेखा करने का कोई तरीका है?

है क्या?

सत्य जान के, अब उसको अनजाना करा जा सकता है क्या? हाँ, तुम अपने आप को भ्रम में रख सकते हो। वो अलग बात है।

तो सोचना, सोचने से मेरा मतलब समझ। मैं समझ रहा हूँ, कि तुम ‘समझ’ कहना चाहते हो। समझ को रिवर्स कर देने का दुनिया में कोई तरीका आज तक खोजे नहीं गया, खोजा जा भी नहीं सकता। जो तुमने एक बार देख लिया तो देख लिया। अब कोशिश कर भी लो, तो उसको अनदेखा नहीं कर सकते। जो जान लिया, अब वो जान लिया। अब उससे नीचे नहीं जा सकते तुम।

तो तुम वही रहोगे जो तुम हो। हाँ, तुम अपने आप को बहुत कष्ट ज़रूर दे सकते हो कि मैं कोशिश कर के दूसरे जैसा हो जाऊँ। मैं उनकी हाँ में हाँ मिला दूँ। मैं उनकी बात काटूँ न। ऐसा करा नहीं जा सकता।

समझ तो समझ है। समझ गए, तो समझ गए।

अब समझ के ये भी समझो, कि इस स्थिति में तुमने करना क्या है। मैं तुम्हारी मदद नहीं कर पाउँगा। इतना तो तुम समझते ही हो ना कि तुम समझ गए हो? तो अब इस मुद्दे पर भी अपनी ही इंटेलिजेंस लगाओ कि उचित कर्म क्या है क्योंकि, घरवाले किसके हैं? तुम्हारे। प्रेम की बात किसकी है? तुम्हारी। समझ की बात किसकी है? तुम्हारी। तो उसे समझेगा कौन? तुम।

तो उसमें बस कल्पनाएँ मत करना, नेति नेति वाली गलती मत करना। कि तुमने कल्पना कर ली, कि ये तो घरवाले हैं, तो सही ही कह रहे होंगे। या ये घरवाले हैं, तो इनका दिल नहीं तोड़ना चाहिए। तो कोई भी ऐसी बात। कैसी भी बात जो कल्पना से आ रही हो। कल्पना मत करना।

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