मैं कौन ? || आचार्य प्रशांत संवाद || आचार्य प्रशांत मोटीवेशन स्टोरी || आचार्य प्रशांत


 




नमस्कार!

गीता पर बहुत बात करी है मैंने, और हैरान रहा हूँ कि बार-बार, यही मुद्दा उठता है कि राजपाट के लिए अपनों के ख़िलाफ़ जाना कैसे ठीक है? और किसी को ध्यान ही नहीं आता कि ये “अपने” शब्द का अर्थ क्या है—अपना कौन?

अध्यात्म के मूल में ही है स्वयं को जानना—“मैं कौन?” अभी यह तो पता नहीं कि “मैं कौन?” तो यह कैसे पता कि “मेरा कौन?”? आप कौन हैं आपको पता नहीं, अपना कौन है ये पहले पता है? शाबाश! ये तो बड़ा तीर चलाया।

ऋषिकेश में था मैं, तो एक युरोपियन देवी जी मिलीं। मैंने पूछा “यहाँ कैसे?”, बोलीं, “यहाँ मैं ‘हू एम आई’ साधना करने आई हूँ, “कोहम” पता करना है, “मैं हूँ कौन?” मैंने कहा, “और ये आपके साथ कौन?”, बोलीं, “ये मेरे बॉयफ्रेंड हैं”। देवी जी समझ भी नहीं पा रही थीं कि उन्होंने कितनी विरोधाभासी बात कर दी है, कितनी सेल्फ-कॉन्ट्रेडिक्टरी बात कर दी है। अगर तुम्हें अभी नहीं पता है कि तुम कौन हो तो तुम्हें ये कैसे पता है कि जो तुम्हारे साथ है, वो तुम्हारा अपना है? “मुझे ये तो नहीं पता कि ‘मैं कौन हूँ’, वो तो आप बताएँगे, पर मुझे ये पता है कि ‘ये मेरे पति हैं, ये मेरा बच्चा है’।” अगर तुम्हें ये पता है कि ये तुम्हारे पति हैं और ये तुम्हारा बच्चा है तो फिर तुम्हें ये भी पता होगा कि “तुम” कौन हो। “नहीं, वो तो हमें नहीं पता, वो आप बता दीजिए”।

अगर “अपना” नहीं पता तो “अपनों” का कैसे पता भाई? पर अपनों का हमें खूब पता होता है, फ़िल्में खूब देखी हैं न। अब हिंसा का आरोप तो लग ही गया है, तो दिल दुखाने वाली एक-दो बातें बोल ही देता हूँ। कोई नहीं है अपना। तुम लाख गा लो कि प्रियतमा अपनी हैं, या प्रियवर अपने हैं, या लाडला अपना है, या दोस्त-यार अपने हैं, कोई नहीं है अपना।

जब तक ये अपना-पराया खेल रहे हो तब तक “अपने” तक नहीं पहुँच सकते, “आत्मस्थ” नहीं हो सकते। आत्मा तो असंग होती है,उसका कोई संगी-साथी होता ही नहीं है, उसका कोई कुटुम्ब, कोई रिश्तेदार नहीं होता। और चलो, आत्मा तो दूर की कौड़ी है, अभी भी जो तुम हो, एक छटपटाती रूह, एक अतृप्त चेतना, उसका अपना तो वही होगा न जो उसकी छटपटाहट शांत करे और तृप्ति दे। जिनको अपना बोल रहे हो, वो तुम्हारी छटपटाहट शांत कर पाते हैं?

तुम्हें तृप्ति दे पाते हैं वास्तव में?

    - आचार्य प्रशांत

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