एक स्वस्थ संबंध कैसा होता है एक स्वस्थ संबंध कैसा होता है || आचार्य प्रशांत संवाद || आचार्य प्रशांत मोटीवेशन स्टोरी || आचार्य प्रशांत
नमस्कार!
बात सुनने में थोड़ी अजीब लगेगी पर ध्यान दोगे तभी समझ आएगी। ध्यान नहीं दोगे तो कहोगे कि सर आप बड़ी विपरित बात कर रहे हैं। जिसने अपने अकेलेपन में खुश रहना सीख लिया सिर्फ वही पार्टी में मज़े मार सकता है। जो अपने अकेलेपन में दुखी है और पार्टी में इसीलिए जा रहा है ताकि पार्टी में अकेलापन मिटा सके, वो पार्टी में भी तन्हा ही रहेगा।
दूसरे इसलिए नहीं होते हैं कि दूसरे तुम्हारे अकेलेपन को दूर करें। आदमी दूसरे के पास जाता है, इसके दो कारण हो सकते हैं:
1. पहले ये कि मैं बड़ा अकेला हूँ, मेरे दिल में गड्ढा है और तू उस गड्ढे को भर दे। ज़्यादातर लोगों की यही वजह रहती है।
2. दूसरी वजह होती है कि मैं इतना खुश हूँ कि तेरे पास आया हूँ। मैं खुश पहले से ही हूँ और इतना हूँ कि तेरे पास आ गया हूँ।
तुम किस वजह से जाना चाहते हो किसी के पास?
हम जाते हैं कि अगर तू न मिला तो मैं दुखी हो जाऊँगा। हम ये नहीं कहते कि तू हो, न हो, खुश तो मैं हूँ ही और अपनी ख़ुशी में तेरे पास आया हूँ। हम ये कहते हैं कि तू मिलेगा तो मैं खुश हो जाऊँगा। ये बड़ी गड़बड़ है क्योंकि अब दूसरा तुम्हारी ज़रूरत बन गया है, अब तुम उसको पकड़ कर रखना चाहोगे और हज़ार तरह की बीमारियाँ निकलेगी। तुम मालिकाना हक़ जताओगे उसपर, तुम अधिकारात्मक हो जाओगे। वो किसी और की तरफ जाएगा, तो तुम्हारे अंदर से ईर्ष्या उठेगी, गहरी ईर्ष्या कि किसी और के पास जा रहा है।
दूसरों के पास बेशक जाओ। मैं तो कहता हूँ कि दूसरों के पास जाना ही चाहिए। जीवन सम्बंधित होने का ही नाम है। पर संबंध किस आधार पर है, दुःख के आधार पर, या सुख के? हमारे संबंध दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि दुःख के आधार पर हैं। तू मेरे कंधे पर सर रख कर रो, और मैं तेरे कंधे पर सर रख कर रोता हूँ! दुःख को दुःख से गुणा कर दिया तो बहुत सारा दुःख हो गया, छोटा-मोटा नहीं है, दुःख भंडार ही हो गया। हम सब भंडार हैं। दुकानें खोल रखी हैं कि आओ जितनी बीमारियाँ चाहिए हमारे पास से ले जाओं और हम बेचने को भी बड़े उत्सुक हैं। जिसके पास दुःख है, वो क्या बेचेगा? दुःख ही तो बेचेगा। जो बिलकुल अकेला है, तन्हा है, वो क्या बेचेगा? वो दूसरों को भी तन्हाई ही देगा।
इसलिए पहला कदम है कि सबसे पहले अपने आप को पाना है। सबसे पहले अपने अकेलेपन में खुश होना सीखना है। और जब मैं अपने अकेलेपन में खुश होना सीख लूँगा, तब दूसरों से मेरे संबंध भी बड़े प्यारे बनेंगे। पहले तो अकेले में ही खुश होना सीखो। निर्भरता हटाओ दूसरों से। हममें बड़ी निर्भरता रहती है। देखो अगर २-४ घंटे अकेले रहना पड़ जाए तो हम पगला जाते हैं, इधर-उधर मोबाइल देखोगे कि किसको कॉल करें, किसको न करें, और जब कॉल करोगे तो कोई कह दे कि टाइम नहीं है, तो तुम कहोगे, "गद्दार! मैं तन्हा था और उसने मुझसे बात नहीं की"। जो एकदम खाली है, कुछ नहीं है करने को, इधर तुमने फ़ोन मिलाया और वो भी इसी तलाश में था, वो कहे कि बस तेरे जैसे की ज़रूरत थी, तो मिला अँधे से अँधा, और शुरु हो गया वार्तालाप। दो घंटे तक लगे हुए हैं! पहले अकेले खुश होना सीखो, और फिर दूसरों से संबंध रखो।
ये बात मन में मत लाना कि मैं कह रहा हूँ की समाज से संबंध काट लो। कहना बस ये है कि संबंधों का आधार बस उचित होना चाहिए।
संबंध हर्ष से निकले, अकेलेपन से नहीं।
- आचार्य प्रशांत
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